दुआ की बात करते हो, यहाँ गाली नहीं मिलती
मियां दो रूपये में चाय की प्याली नहीं मिलती
यहाँ जीना तो मुश्किल है मगर मरना मुसीबत है
सुना है अब तो कोई कब्र भी खाली नहीं मिलती
कहीं तो हर कदम पर सिर्फ़ सब्ज़ा ही नजर आए
कहीं सौ कोस चलने पर भी हरियाली नहीं मिलती
हमारे दौर के बच्चों ने सब कुछ देख डाला है
मदारी को तमाशों पर कोई ताली नहीं मिलती
सफेदी ओढ़ने का यह नतीजा है कि लोगों के
लहू में भी लहू जैसी कहीं लाली नहीं मिलती
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, मौत, सब तो हैं
मगर सरकार का दावा है, बदहाली नहीं मिलती!
मै
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अगर आपको भारत वर्ष की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद पर थोड़ी सी भी
आस्था है तो आप किसी भी बीमारी के आयुर्वेदिक ट्रीटमेंट के लिए मुझसे बात कर
सकते हैं.
...
5 माह पहले
27 टिप्पणियां:
कितना सच है हर शेर!!
बहुत खूब!
इस रचना के माध्यम से आपने सफलतापूर्वक भाव संप्रेषित किया है। वाह।
हो सके तो अंतिम शेर पर विचार कीजियेगा।
लाजवाब गज़ल बधाई
मैं सभी का आभारी हूँ कि मुझे सब का स्नेह मिलता है, श्यामल सुमन जी का विशेष आभार कि उनहोंने एक गलती की ओ़र ध्यान दिलाया. गलती ठीक हो गयी भाई-शुक्रिया.
बहुत बढिया गज़ल है।आज की सच्चाई ब्यान करती।बधाई।
मी लार्ड, मैं यह तो नहीं कहूँगा कि सच और सच के सिवा यहाँ और कुछ नहीं परोसा गया है, बल्कि एक बेहतरीन ग़ज़ल से हम सब को आइना भी दिखाया गया है..................
वाह सर्वत जी, आपने तो कमाल कर दिया. इतनी शानदार ग़ज़ल पेश की, कि दिल बाग- बाग हो गया.
बधाई ही बधाई......
Bahut hi pyari gazal likhi hai aapne, badhaayi.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
aapka mere blog par padharne ke liye hriday se dhanyawaad.
aapki gazal behatareen hai. badhai sweekaren. aur punah padharen. dhanyawaad.
बेहद खूबसूरत रचना ...
ग़ज़ब की धार है |
अपनी सरकार के लिए तो मैं इतना ही कहूंगा "कुपथ पथ जो रथ दौडाता पथ निर्देशक वही है " - हरिवंस राय बच्चन
दुआ की बात करते हो, यहाँ गाली नहीं मिलती
मियां दो रूपये में चाय की प्याली नहीं मिलती
वाह....वाह....वाह.......!!
यहाँ जीना तो मुश्किल है मगर मरना मुसीबत है
सुना है अब तो कोई कब्र भी खाली नहीं मिलती
बहुत खूब.........!!
सफेदी ओढ़ने का यह नतीजा है कि लोगों के
लहू में भी लहू जैसी कहीं लाली नहीं मिलती
सर्वात जी आज तो बस वाह वाह ही है .....!!
waaaaaaaaah bahut sundar
venus kesari
वीनस जी की तरह से तो हम वाह नहीं कह पायेंगे लेकिन वाकई वा$$$$ह ,वा!!!!ह , वाSSSह
shashwat satya....
सर्वत जी आप मेरे ब्लॉग पर आए बहुत-बहुत धन्यवाद आपका...मुझे आपकी राय पसंद आई..परन्तु इस भाग-दौड़ के जीवन में किसे फुर्सत है किसी को कुछ सिखाये ..मैने सुबीर जी की ग़ज़ल कक्षा से थोड़ा बहुत सीखा..लोगों की टिप्पणियों से कुछ सीखने को मिले इसलिए लिख लेती हूँ ...आप भी तो ग़ज़ल लिखते हैं..कृपया गलतियाँ बताने की कृपा करें तो मैं आपकी आभारी होउंगी...
har sher lajawab . Bahut badhiya.
सर्वत भाई
सरल होगा गरल पीना कठिन है पर सरल होना
मीर दुष्यंत से आगे पांव सर्वत को है रखना
बधाई
इतनी सहज विनम्रता जो आप की्मेरे बलॉग पर टिप्पणी में दिखाई देती है वहआपकी महानता की ही लक्च्हन है
हुज़ूर , नमस्कार
एक कामयाब और शाईस्ता ग़ज़ल कहने पर ढेरों
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं .
आज के हालात पर बहुत कड़ी नज़र रख कर ही
लफ्जों को इज़हार दिया है
सफेदी ओढ़ने का ये नतीजा है क लोगों के
लहू में भी लहू जैसी कहीं लाली नहीं मिलती
वाह - वा
---MUFLIS---
आज आपके ब्लॉग पर पहलीबार आना हुआ और सच कहूँ आपको पढ़ कर तबियत खुश हो गयी...ग़ज़ल लिखने में आपका जवाब नहीं...कमाल लिखते हैं...
हमारे दौर के बच्चों ने....और...सफेदी ओढ़ने का नतीजा...कमाल के शेर हैं आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल में..मेरी दिली दाल कबूल फरमाएं...
नीरज
Blog pe aane ke liye tah-e-dil se shukriya....
sath hi chahunga....jo salah aapne di hai...use lagu karne ke liye sujhav den...jaise ki batayen kahan galti hui aur use kis tarah sudhar kiya jaye....
बिलकुल ठीक निर्वाह है लेकिन आप इस से बढ़िया लिख सकते हैं ।
shukria.logon ke dilon tak pahunchne ka har zariya mujhe pasand hai phir woh stage ho ya blog.
u write so well.
प्रणाम दादा,
पता नहीं इस बार कैसे गलती हो गयी. आज देखा तो दो गज़लें मिलीं. आजकल कम्प्यूटर से इलर्जी सी हो गयी है. मन नहीं करता बैठने का ख़ैर, मैं जब भी अच्छी ग़ज़ल पढता हूं तो सबसे पहले ये ख़याल आता है कि ये ग़ज़ल कैसे आयी होगी. ग़ज़लकार ने कैसे सोचा होगा और उस सोच की कल्पना में जितने बडे कैनवास के दर्शन होते हैं मन उतनी ही श्रद्धा से झुक जाता है. रूह को बहुत ताज़गी मिल रही है आज. आनन्द आ गया दोनों ग़ज़लों को पढकर. किसी एक शेर को कोट नहीं करूंगा लेकिन हमारे दौर-----'' वाले शेर को पढकर बडे भाई अशोक रावत जी का ये शेर याद आ रहा है-
'न जाने ढूंढता रहता है क्या अक़्सर किताबों में,
मेरा दस साल का बेटा शरारत ही नही करता'
हां एक बात और मुझे इस बात की ख़ुशी हुई कि नीरज जी को आपके ब्लाग के विषय में पता चल गया वरना मैं एक बात नोट कर रहा हूं कि जो अच्छे ब्लाग हैं वहां ब्लागरों की आमद बहुत कम है पता नहीं क्यों. जहां बेतुकी चार लाइनें परोसी जा रही हैं वहां पांच घंटों में पचास लोगों की टिप्पणियां आ जाती हैं. आपने उस दिन कहावत सुनायी थी कि, तू मुझको हाज़ी कह मैं तुझको हाज़ी कहूं' वाली स्थिति है, लेकिन इस हाज़ी-हाज़ी कहने से क्या कोई ख़ुदा का बन्दा हो जायेगा?
आप तो रोज़े से होंगे. सब ठीक चल रहा है?
सफेदी ओढ़ने का यह नतीजा है कि लोगों के
लहू में भी लहू जैसी कहीं लाली नहीं मिलती
bahut khuub..saadar
अरे ये यकायक भूतनाथ कहाँ आ गया भाई.....ये तो ग़ज़ल का समंदर लगता है....इसमें डूब कर हम मर जायेंगे.....ऐसा लगता है....!!...लाजवाब....यकीनन....अद्भुत....निस्संदेह....शानदार
जबरदस्त...और क्या कहूँ...सोचकर आता हूँ....!!
दो और दो पांच करते थे नतीजा आज ये निकला
हिसाबो में फंसे इतने की अब बहाली नहीं मिलती
वाह....वाह....वाह...लाजवाब...खूबसूरत ग़ज़ल....
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