गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

गज़ल- एक बार फिर

लिखते हैं, दरबानी पर भी लिक्खेंगे 
झाँसी वाली रानी पर भी लिक्खेंगे 

आप अपनी आसानी पर भी लिक्खेंगे 
यानी बेईमानी पर भी लिक्खेंगे 

महलों पर लोगों ने ढेरों लिक्खा है 
पूछो, छप्पर-छानी पर भी लिक्खेंगे 

फ़रमाँबरदारों को इस का इल्म नहीं
हाकिम नाफ़रमानी पर भी लिक्खेंगे

अपना तो कागज़ पर लिखना मुश्किल है
और अनपढ़ तो पानी पर भी लिक्खेंगे

बस, कुछ दिन, खेती भी किस्सा हो जाए
खेती और किसानी पर भी लिक्खेंगे

हम ने सर्वत प्यार मुहब्बत खूब लिखा
क्या हम खींचातानी पर भी लिक्खेंगे