रविवार, 14 फ़रवरी 2010

अपने वतन में सब कुछ है...

मुझे नहीं, हम सभी को पता है कि अपने वतन में सब कुछ है. लेकिन सब कुछ उपलब्ध कराने का ज़िम्मा जिन लोगों को सौंपा गया है, उनकी नीयत, उनकी बरकत के क्या कहने! ताज़ा वाकया ऐसा है जिसे सुन कर आप का सर शर्म से झुक जाएगा, शर्त है कि आप में सम्वेदना हो.
वेंकुवर में शीतकालीन ओलम्पिक खेल आरम्भ हो रहे हैं. आपको इल्म है कि इस में देश का प्रतिनिधित्व करने गए तीन भारतीय खिलाडियों के पास, उद्घाटन समारोह में शिरकत के लिए जर्सी नहीं थी. एक दक्षिण एशियाई ब्रोडकास्टर सुषमा दत्त को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने सरे से अनुदान की व्यवस्था की.
भारतीय टीम के सदस्य, शिवा केशवन का दर्द महसूस कीजिए-"ओलम्पिक हर खिलाड़ी का सपना होता है. उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए अच्छी ड्रेस की जरूरत पड़ती है जो हमारे पास नहीं थी. विंटर से जुड़े खेलों के लिए हमारे पास उपकरण भी नहीं हैं. लेकिन यह संघर्ष का दौर है इससे हर हाल में पार पाना होगा."
शर्म से डूब मरने का मुकाम है. सिर्फ भारत की आम जनता में कुछ प्रतिशत लोगों के लिए. खादी और सफारी तो इसे 'रूटीन' बताकर पल्ला झाड लेंगे. वैसे भी यह विंटर गेम्स हैं कोई क्रिकेट थोड़े है. क्रिकेट पैसे पैदा करता है और विंटर ओलम्पिक!  ये तो सिर्फ देश के लिए ही खेला जाता है ना! देश सेवा करने वालों को क्या मिलता है? भगत सिंह को फांसी, गाँधी को गोली, शास्त्री को अकाल मृत्यु......वगैरह वगैरह.
सरे में एक स्पोर्ट्स कम्पनी के मालिक टी जे जोहाल ने जब यह सुना कि भारतीय खिलाडियों के पास शीतकालीन ओलम्पिक खेलों के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए कपड़े नहीं हैं तो वे हतप्रभ रह गए.उन्होंने कहा, "भारत को कपड़ों का देश कहा जाता है और उनके खिलाडियों के पास जरूरी जर्सी न हो यह सुनना थोड़ा आश्चर्यजनक लगता है."
जोहाल ने आगे कहा, "जब मुझे सच्चाई पता लगी तो वह सही मायने में निराश करने वाली थी. उन खिलाडियों के पास सही में उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए जरूरी जर्सी नहीं थी. इसके बाद मैंने तीनों भारतीय खिलाडियों को जर्सी उपलब्ध करने का निर्णय लिया क्योंकि एक खिलाड़ी को सब समय फिट और अपनी जर्सी में होना चाहिए ताकि वो खुद को चैम्पियन महसूस कर सके."
अभी कितने गुज़रे २६ जनवरी को? बड़ी देशभक्ति, आन, बान, शान की बातें की गईं. अब इस मामले पर क्या होगा? शायद कोई जांच कमेटी बिठा दी जाएगी और कुछ लोगों के बयान छापेंगे, फिर फ़ाइल ठंडे बस्ते में. देश की जो बदनामी होनी थी, वो तो हो चुकी.
१९६२ में, चीन युद्ध के दौरान, हमारे सैनिकों के पास न तो गर्म कपड़े थे न ही ऐसे जूते जिन से बर्फ में पैरों की हिफाजत होती. आज, ४८ वर्ष बाद इस घटना ने क्या साबित किया?
मुझे इस पोस्ट में और कुछ और नहीं लिखना. मन इतना खट्टा हो गया इस घटना को पढकर कि इसे भी पोस्ट करने का दिल नहीं था. अब जो भी कहना है, आपको कहना है.