शुक्रवार, 21 मई 2010

ग़ज़ल

हर घड़ी इस तरह मत सोचा करो
जिंदा रहना है तो समझौता करो


कुछ नहीं, इतना ही कहना था, हमें
आदमी की शक्ल में देखा करो


जात, मजहब, इल्म, सूरत, कुछ नहीं
सिर्फ़ पैसे देख कर रिश्ता करो


क्या कहा, लेता नहीं कोई सलाम
मशवरा मनो मेरा, सजदा करो


पास रक्खोगे तो जिल्लत पाओगे
यार इस ईमान का सौदा करो


एक आरक्षण के बल पर इन्कलाब
जागते में ख्वाब मत देखा करो


लोकसत्ता, लोकमत, जनभावना
फूल संग गुलदान भी बेचा करो

गुरुवार, 6 मई 2010

गज़ल

भला ये कोई ढंग है, मिला के हाथ देखिए 
तमीज़ तो यही है ना कि पहले ज़ात देखिए 

हुज़ूर आप फर्ज़ भी निभाइए मगर जरा 
ये थैलियाँ भी देखिए, तअल्लुकात देखिए 

कहीं भी सर झुका दिया, नया खुदा बना लिया 
गुलाम कौम को मिलेगी कब निजात, देखिए 

जब आँधियों का जोर थम गया तो पेड़ बोल उठा 
है कौन डाल-डाल कौन पात-पात देखिए 

जलाए आप ही ने सब चराग, ठीक है मगर 
उजाला-तीरगी हैं कैसे साथ-साथ, देखिए 

हर आदमी में ऐब ढूंढना कमाल तो नहीं 
कभी हुनर भी देखिए, कभी सिफात देखिए 
                                                                               
इसी तरह से मुल्क में रहेगा सर्वत अम्न  अब 
न कोई जुर्म ढूंढिए, न वारदात देखिए.