शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

गजल- 65

कहाँ आंखों में आंसू बोलते हैं
मैं मेहनतकश हूँ बाजू बोलते हैं

ज़बानें बंद हैं बस्ती में सबकी
छुरे, तलवार, चाकू बोलते हैं

मुहाफिज़ कुछ कहें, धोखा न खाना
इसी लहजे में डाकू बोलते हैं

कभी महलों की तूती बोलती थी
अभी महलों में उल्लू बोलते हैं

भला तोता और इंसानों की भाषा
मगर पिंजडे के मिट्ठू बोलते हैं

वहां भी पेट ही का मसअला है
जहाँ पैरों में घुँघरू बोलते हैं

जिधर घोडों ने चुप्पी साध ली है
वहीं भाड़े के टट्टू बोलते हैं

बस अपने मुल्क में मुस्लिम हैं सर्वत
अरब वाले तो हिंदू बोलते हैं