सदियों पहले जब गज़लों ने भारत में कदम रखे तब ईरान से चली इस इस विधा की भाषा फारसी थी और परिभाषा थी- 'महबूब से बातचीत।' उन दिनों हिन्दुस्तानी भाषा (हिन्दी/उर्दू) में जिन लोगों ने गजलें कहने की कोशिश की, उन्हें जाहिल, गंवार तक कहा गया। कारण था, गज़लों का फारसी भाषा में न होना। उस ज़माने आम तौर पर शहंशाह, नवाब, ज़मींदार और ऊंचे तबके के, पढ़े-लिखे लोग ही शायरी करते थे। उन लोगों ने यह ग्रंथि पाली थी कि गज़ल सिर्फ़ और सिर्फ़ फारसी में ही होगी। गज़ल का मज़मून भी महबूब -इश्क-मुहब्बत-शराब तक ही सीमित था।
लेकिन धीरे धीरे गज़ल ने अपने पांव पसारने शुरू किए। गज़ल उर्दू भाषा में हिन्दुस्तानी अवाम के दिलो-दिमाग पर राज कने लगी। फिर भी गज़ल के (परंपरागत) विषय से हटने की जुर्रत किसी भी शायर ने नहीं दिखाई।
लगभग चार सौ का ज़माना हुआ, हैदराबाद दकन पढ़े-लिखे लोगों की बस्ती थी, शायरी की धूम थी। ऐसे वक्त में 'वली' ' दकनी का यह शेर(मतला) अवाम की जुबान पर चढ़ गया:
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतबार खोती है।
उस दौर में यह गज़ल का विषय था ही नहीं। बहुतों ने नाक-भौं चढाई। मगर जिस शेर को अवाम ने सर चढा लिया हो, उससे निगाहें फेरना भी मुमकिन नहीं था। बाद के दिनों में मीर, सौदा, इंशा, हांली , मोमिन वगैरह ने तो वली दकनी के शेर की रोशनी को और जिंदगी बख्शी। मिर्जा ग़ालिब ने तो गज़लों को एक नया और अनूठा लहजा तक दे डाला। इकबाल, फैज़, जोश, फिराक, साहिर ने ग़ालिब की परम्परा को आगे, बहुत आगे पहुँचा दिया। लगभग चार सौ सालों से गज़ल भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में लोगों के दिलों पर राज कर रही है और अभी दूए-दूर तक इसकी लोकप्रियता कम होने के आसार भी नज़र नहीं आते।
हिन्दी साहित्य की महान विभूति पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने गज़लों की हिन्दी में शुरूआत की। बात आई गयी हो गयी (कबीर तथा उनके समकालीन कई रचनाकारों ने भी गजलें कहने की कोशिशें की हैं)। लेकिन...हिन्दी गज़लों का चलन शुरू हो गया। बात फिर भी नहीं बन रही थी। उर्दू गजलें - हिन्दी गज़लों पर २१ नहीं, २८-३० पड़ रही थीं। हिन्दी गज़लकार भी दोषी करार दिए जायेंगे कि उन्हों ने गज़लों पर मेहनत नहीं की, बल्कि हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को जबरन ठूंसने जैसी हरकतें ज़्यादा कीं। फिर... दुष्यंत कुमार का आगमन हुआ. छोटी सी उम्र में एक नन्हा सा गज़ल संग्रह 'साए में धूप' क्या आया, हिन्दी गजलों की धूम मच गयी.उर्दू के शायरों तक ने दुष्यंत और हिन्दी गजल का लहजा अपनाया. यही सिलसिला जारी है और मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं की दुष्यंत ने साए में धूप से जिस सफर की शुरूअत की थी, बाद के रचनाकारों ने उसे मंजिल के काफी करीब पहुंचा दिया.
हिन्दी गजलों की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है बहुत से प्रख्यात गीतकार, कथाकार, निबंधकार यहाँ तक की कविता (अतुकांत) के लोग भी इस विधा से जोर अजमाइश करते नज़र आए । मुझे कुछ या किसी का भी नाम लेने, बताने की ज़रूरत नहीं हकीकत यह है की गीतों/कहानियों/निबंधों और अखबारों में खबरें लिखकर अपनी लेखनी का लोहा मनवा लेने वाले रचनाकार, गजल के मोह में फंसकर, बुरी तरह धराशायी हो गए। उनका यह गजल प्रेम, गजल की भाषा में कुछ ऐसा ही था:
खरीदें अब चलो रुस्वाइयां भी
चलो उसकी गली भी देख आयें
दरअसल गजल ने जब महबूब का दामन छोड़कर, आम आदमी के सरोकारों से नाता जोड़ा, फारसी या गाढी वाली उर्दू की आगोश से निकालकर, आम बोलचाल की भाषा के पहलू में बैठी तो यह ख़ास ही नहीं, आम की भी चहेती बन गयी सिर्फ दो मिसरों में एक पूरी कहानी समो लेना, गजल का ऐसा हुनर है, जिसने पाठकों/श्रोताओं के साथ कलमकारों को भी अपने आकर्षण से जकड लिया। एक बाद सी आई हुई है गजलों और गजलकारों की। गजलों को सामंती व्यवस्था का पैरोकार, नशा पिलाने वाली, कोठे वाली कह रही पत्रिकाओं ने भी गजल विशेषांक प्रकाशित किए। बहुत से लोगों ने तो गजल संग्रह प्रकाशित कराने-कराने का धंधा ही खडा कर लिया है
लेकिन गजलकारों के इस सैलाब में कामयाब कितने हैं? गजल की शास्त्रीयता, उसके नियम, कायदे-क़ानून को जाने-समझे बगैर लोगों ने लिखना शुरू कर दिया और अवाम ने उन्हें नकारना। परन्तु गज़लकारों ने हौसला नहीं छोड़ा। एक बड़ी तादाद ने इसका भी हल ढूंढ लिया। वे छाती ठोंककर कहते हैं -"ये हिन्दी गज़ल है, ये ऐसी ही होती है।'
सवाल यह है कि अगर यह' ऐसी ही होती है' तो दुष्यंत कुमार की ऐसी क्यों नहीं हैं? तुफैल चतुर्वेदी, महेश अश्क, सुलतान अहमद, इब्राहीम अश्क, अदम गोंडवी,ज्ञान प्रकाश विवेक, विज्ञानं व्रत,देवेन्द्र आर्य, अंसार कंबरी, राजेंद्र तिवारी, शेरजंग गर्ग और इस 'नाचीज़' की ऐसी क्यों नहीं? क्या वो तमाम गज़लगो, जो गज़लों को मीटर (बहरों) की बंदिश में रखते हुए भी,कथ्य को शेरो की शक्ल देने में कामयाब हैं, हिन्दी गजलें नहीं कह रहे हैं? अगर हिन्दी गज़लों का अर्थ अशुद्धियाँ-त्रुटियां ही हैं तो उन रचनाकारों को चाहिए कि वे दुष्यंत को भी हिन्दी गज़ल के खेमे से खारिज कर दे।
गजलें लगभग ४०० साल से भारत में लोकप्रिय हैं। पिछले ३०-३५ वर्षों से हिन्दी गज़ल के नाम पर कुछ लोगों द्वारा जो परोसा जा रहा है, भारतीय जनमानस उसे लगातार नकारता आ रहा है। अगर चार सदियों में, शायरों ने गज़ल के कायदे-कानून सीखकर ही शायरी की तो ये बाकी लोग सीखने से गुरेज़ क्यों रखते हैं? क्या भारतीय चुनाव व्यवस्था की तरह 'इतने सरे बुरे लोगों में से कम बुरे को चुने ' की तर्ज़ पर ये लोग अपनी गजलें भी परवान चढाना चाहते हैं? गज़ल को गज़ल ही रहने दे। न लिख सकें तो कविता की कई विधाएं हैं, उनमें कलम आजमायें। गज़ल ही लिखने के लिए किसी डाक्टर ने मशविरा दिया है क्या?
Swelling, Anti Ageing, Wrinkles, Boost Energy, Hair Growth Etc.Treatmen...
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5 वर्ष पहले