शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

अपने वतन में सब कुछ है प्यारे...!

अख़बार में छपी एक खबर देखी और सवेरे सवेरे मूड ऑफ़ हो गया.
चंडीगढ़ पुलिस ने सेक्टर ४२ के एक गेस्ट हाउस से शंकर मेहता उर्फ़ महतो नामक एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया. इस आदमी पर इलज़ाम है कि वह भीख मांग कर मंहगे होटलों में ठहरने का शौकीन है. पुलिस ने उसके पास से एक मंहगा मोबाइल फोन भी बरामद किया है. मजे की बात यह है कि महतो इस गेस्ट हाउस में पिछले २ माह से रह रहा था और किराये के रूप में ६ हजार रूपयों का भुगतान भी कर चुका था. गिरफ्तारी के वक्त उसके पास से ३ हजार रूपये और मोबाइल फोन बरामद किए गये.
मुलाहिजा फरमाइए, क्या कारनामा अंजाम दिया है पुलिस ने! लगा जैसे माफिया या आतंकवादी को पकड़ लिया हो. जांच करने वाले अधिकारी ने यह भी बताया कि वह गर्मियों में शिमला जाने की योजना बना रहा था. फिलवक्त उस पर भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है.
महतो लकी है कि उसे पुलिस ने भीख मांगने के आरोप में पकड़ा. चाहती तो उसे आतंकवादी बता देती. लश्कर, आई.एस.आई.,उल्फा या किसी अन्य संगठन का सक्रिय सदस्य बता या बना सकती थी. या इस खबर का प्रकाशन यूं भी हो सकता था......कि मुखबिर की सूचना पर, आला अधिकारीयों के निर्देशन में फलां इंस्पेक्टर मय हमराह कांस्टेबल फलां...फलां ने गेस्ट हाउस पर दबिश दे कर चोरी/डकैती/लूट(या जो भी मुनासिब होता) की योजना बनाते महतो को सरकारी गेस्ट हाउस से गिरफ्तार किया. आला अधिकारी उसके अन्य साथियों और पिछली वारदातों हेतु गहन छानबीन कर रहे हैं.
महतो खुशकिस्मत है कि वह अख़बार की एक छोटी सी न्यूज़ बना, वो बड़ी सुर्खी बन सकता था. मय फोटो, खून में लथपथ लाश की सूरत में, कैमरे के सामने लाश के पास असलहे लिए हुए पुलिस वालों के मुस्कुराते चेहरों के साथ. लेकिन शायद चंडीगढ़ पुलिस, देश के दूसरे सूबों की पुलिस के मुकाबले ईमान्दार है या फिर सरकारी गेस्ट हाउस का मामला होने की वजह से वैसा नहीं हो सका जैसा अब तक पुलिस के कारनामों में होता रहा है.
मुझे इस मामले में सिर्फ एक चीज़ समझ में आती है. कुछ माह पहले, हैरान परेशान के ब्लॉग में एक लेख छपा था. उस में पुलिस और भिखारी की तुलना की गयी थी. मुझे अपना एक शेर भी याद आता है:-
हाथ फैलाए खड़े थे दोनों ही फुटपाथ पर 
चीथड़ों में एक था और दूसरा वर्दी में था.
शालीनता का तकाज़ा है, वरना पूरा लतीफा सुना देता. फिर भी, वो आख़िरी जुमला लिख रहा हूँ. जो लोग वाकिफ हैं वो तो समझ जाएँगे और जो नावाकिफ हैं वो किसी समझदार को ढूंढ कर मुस्कुराने की आज़ादी हासिल करें..
"मांगने को भीख और शौक़ रखते हो नवाबों वाले".
मांगने का काम पुलिस का है. अब यह काम अगर कोई दूसरा कर रहा है तो पुलिस यानी सरकारी काम में न सिर्फ हस्तक्षेप बल्कि अनाधिकार चेष्टा का भी मामला बनता है. चूंकि पुलिस के 'मांगने' को आज़ादी के ६३ वर्षों बाद भी सरकारी मान्यता नहीं मिल सकी. यही कारण है की महतो के भाग्य का सितारा अब तक बुलंद है. सरकार के इस महत्वपूर्ण विषय पर आँखें मूंदे रहने से महतो बच गए वरना ठंडे मौसम ठंडे पड़े होते. 
फ़िलहाल, पुलिस महतो के फोन की काल डिटेल्स निकलवा रही है और उसका शिमला जाना क्यों हो था है, इस पर भी मनन कर रही है. 
मुझे एक और जरूरी बात कहनी है आपसे....
पिछले कुछ अरसे से मन कुछ अजीब सा हो रहा है. गजलों-कविताओं से दिल उचाट हो गया है. मैं शायद अब गजलें पोस्ट न करूं. मुझे इस बात की खुशी है कि इधर पिछले कुछ माह में नए लोगों की की एक बड़ी और बेहतरीन खेप नेट पर अपनी आमद दर्ज करा चुकी है. ऐसे में एक आदमी की रचनाओं के न होने से कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा. मुझे, मेरे इस फैसले के लिए क्षमा कीजिएगा लेकिन खुद से कब तक लड़ा जाए.
और अंत में.... यह कोई पब्लिसिटी स्टंट नहीं है. मैं सच्चे मन से अपनी बात कह रहा हूँ. ब्लॉग पर अन्य विषयों को लेकर आपके साथ हूँ और रहूँगा भी. सिर्फ पोएट्री से अलग हो रहा हूँ.
अगर आप में से कुछ भाई यह सोच रहे हों कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का यह थोथा प्रयास है तो यकीन रखें ऐसी कोई भावना मेरे अंदर नहीं है. लिहाज़ा इस विषय पर अब कोई चर्चा नहीं.
इस लेख पर आपकी राय का इंतज़ार है.