मंगलवार, 9 नवंबर 2010

गज़ल



अपने  लिए दिमाग में कोई भरम नहीं
लेकिन हुजूर आप भी साबित कदम नहीं


माहौल के खिलाफ ये कैसा मुजाहिरा 
आवाज़ तो बुलंद है ,नारों में दम नहीं 


एक हादसे का सोग है नाटक की शक्ल में
सब रो रहे हैं,आँख किसी की नम नहीं


अक्सर ही मसलेहत के सबब टूट जाता है
उनका उसूल उसूल है कोई कसम नहीं 


किसकी लहू की प्यास का हम तजकिरा करें 
इंसान और दरिंदों में कोई भी कम नहीं


सर्वत अकेले तुम ही नहीं हो दुखी यहाँ
एक आदमी बताओ जिसे कोई गम नहीं