मंगलवार, 26 जनवरी 2010

नज़्म

उस गणतंत्र के नाम, जो गण का तो रहा नहीं, तन्त्र का हो कर रह  गया. गण भौंचक्के से तन्त्र के आगे सर झुकाए, गणतन्त्र दिवस को हसरत भरी निगाहों से देखते हैं. सोचते हैं, जाने कब वो दिन आएगा जब वास्तविक 
 'गणतन्त्र' होगा,
हम सब के लिए..... छोड़िए, नज़्म पढ़िए 

दाना नहीं है पेट में, खुशियाँ मनाइए
छब्बीस जनवरी है ये छब्बीस जनवरी
इक बार और जोर से नारा लगाइए

मंहगाई बैठी सब को परीशां किए हुए
सरकार कह रहे हैं कि कुछ और सब्र हो
बैठे रहें तस्व्वुरे-जानां किए हुए

कानून, संविधान- हरे राम राम राम
बाहर की बात छोड़िए खतरे तो घर में हैं
है कोई सावधान- हरे राम राम राम

इंसानियत जो मोम थी, वो काठ की हुई
हर शख्स थकने लगता है इक उम्र आने पर
जम्हूरियत भी आज चलो साठ की हुई.