मंगलवार, 23 नवंबर 2010

बस ग़ज़ल के कुछ शेर

पत्थर पत्थर नूर दिखाई देता है 
शीशा चकनाचूर दिखाई देता है .


प्यास लिए चलते चलते मुद्दत गुज़री
दरिया अब भी दूर दिखाई देता है


लोग अंधेपन का रोना क्यों रोते हैं
आँखें हैं, भरपूर दिखाई देता है


सदियाँ गुज़री लेकिन तुमको दहशत में 
हर लंगड़ा तैमूर दिखाई देता है


धोखा पहले पाप बताया जाता था 
लेकिन अब दस्तूर दिखाई देता है 

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

गज़ल



अपने  लिए दिमाग में कोई भरम नहीं
लेकिन हुजूर आप भी साबित कदम नहीं


माहौल के खिलाफ ये कैसा मुजाहिरा 
आवाज़ तो बुलंद है ,नारों में दम नहीं 


एक हादसे का सोग है नाटक की शक्ल में
सब रो रहे हैं,आँख किसी की नम नहीं


अक्सर ही मसलेहत के सबब टूट जाता है
उनका उसूल उसूल है कोई कसम नहीं 


किसकी लहू की प्यास का हम तजकिरा करें 
इंसान और दरिंदों में कोई भी कम नहीं


सर्वत अकेले तुम ही नहीं हो दुखी यहाँ
एक आदमी बताओ जिसे कोई गम नहीं