शनिवार, 24 अप्रैल 2010

गज़ल

अमीर कहता है इक जलतरंग है दुनिया
गरीब कहते हैं क्यों हम पे तंग है दुनिया

घना अँधेरा, कोई दर न कोई रोशनदान 
हमारे वास्ते शायद सुरंग है दुनिया 

बस एक हम हैं जो तन्हाई के सहारे हैं 
तुम्हारा क्या है, तुम्हारे तो संग है दुनिया 

कदम कदम पे ही समझौते करने पड़ते हैं 
निजात किस को मिली है, दबंग है दुनिया 

वो कह रहे हैं कि दुनिया का मोह छोड़ो भी 
मैं कह रहा हूँ कि जीवन का अंग है दुनिया 

अजीब लोग हैं ख्वाहिश तो देखिए इनकी 
हैं पाँव कब्र में लेकिन उमंग है दुनिया 

अगर है सब्र तो नेमत लगेगी  दुनिया भी                                                         
नहीं है सब्र अगर फिर तो जंग है दुनिया 

इन्हें मिटाने की कोशिश में लोग हैं लेकिन 
गरीब आज भी जिंदा हैं, दंग है दुनिया   

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

गज़ल- एक बार फिर

लिखते हैं, दरबानी पर भी लिक्खेंगे 
झाँसी वाली रानी पर भी लिक्खेंगे 

आप अपनी आसानी पर भी लिक्खेंगे 
यानी बेईमानी पर भी लिक्खेंगे 

महलों पर लोगों ने ढेरों लिक्खा है 
पूछो, छप्पर-छानी पर भी लिक्खेंगे 

फ़रमाँबरदारों को इस का इल्म नहीं
हाकिम नाफ़रमानी पर भी लिक्खेंगे

अपना तो कागज़ पर लिखना मुश्किल है
और अनपढ़ तो पानी पर भी लिक्खेंगे

बस, कुछ दिन, खेती भी किस्सा हो जाए
खेती और किसानी पर भी लिक्खेंगे

हम ने सर्वत प्यार मुहब्बत खूब लिखा
क्या हम खींचातानी पर भी लिक्खेंगे

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

गज़ल-एक बार फिर

कितने दिन, चार, आठ, दस, फिर बस
रास अगर आ गया कफस, फिर बस


जम के बरसात कैसे होती है
हद से बाहर गयी उमस फिर बस


तेज़ आंधी का घर है रेगिस्तान
अपने खेमे की डोर कस, फिर बस


हादसे, वाक़यात, चर्चाएँ
लोग होते हैं टस से मस, फिर बस


सब के हालात पर सजावट थी
तुम ने रक्खा ही जस का तस, फिर बस


थी गुलामों की आरजू, तामीर
लेकिन आक़ा का हुक्म बस, फिर बस


सौ अरब काम हों तो दस निकलें                          
उम्र कितनी है, सौ बरस, फिर बस