गुरुवार, 7 मई 2009

गजल- 60

एक ही आसमान सदियों से
चंद ही खानदान सदियों से

धर्म, कानून और तकरीरें
चल रही है दुकान सदियों से

काफिले आज तक पड़ाव में हैं
इतनी लम्बी थकान, सदियों से !

सच, शराफत, लिहाज़, पाबंदी
है न सांसत में जान सदियों से

कोई बोले अगर तो क्या बोले
बंद हैं सारे कान सदियों से

कारनामे नजर नहीं आते
उल्टे सीधे बयान सदियों से

फायदा देखिये न दांतों का
क़ैद में है जबान सदियों से

झूठ, अफवाहें हर तरफ सर्वत
भर रहे हैं उडान सदियों से

मंगलवार, 5 मई 2009

गजल- 59

हैं तो नजरों में कई चेहरे
देवता लेकिन वही चेहरे

दाम दो तो पांव छू लेंगे
आठ, दस क्या हैं, सभी चेहरे

देख लेना, तेल बेचेंगे
पढ़ रहे हैं फारसी चेहरे

शहर जलता है तो जलने दो
कर रहे हैं आरती चेहरे

फिर सियासत धर्म बन बैठी
लाये कौड़ी दूर की चेहरे

नेकियाँ करने से पहले ही
ढूँढने निकले नदी चेहरे

जन्म, शादी, मौत, कुछ भी हो
पी रहे हैं शुद्ध घी चेहरे

आज पैसे हैं तो मजमा हैं
इतने सारे मतलबी चेहरे

लाज बचनी ही नहीं है अब
मर चुके हैं द्रौपदी चेहरे

इन दिनों अपनों में रहता हूँ
जबकि सब हैं अजनबी चेहरे

रुक्मिणी बोली, कन्हैया ना !
राधा बोली, ना सखी, चेहरे

रविवार, 3 मई 2009

गजल- 58

एक एक जहन पर वही सवाल है
लहू लहू में आज फिर उबाल है

इमारतों में बसने वाले बस गए
मगर वो जिसके हाथ में कुदाल है ?

उजाले बाँटने की धुन तो आजकल
थकन से चूर चूर है, निढाल है

तरक्कियां तुम्हारे पास हैं तो हैं
हमारे पास भूख है, अकाल है

कलम का सौदा कीजिये, न चूकिए
सुना है कीमतों में फिर उछाल है

गरीब मिट गये तो ठीक होगा सब
अमीरी इस विचार पर निहाल है

तुम्हारी कोशिशें कुछ और थीं, मगर
हम आदमी हैं, यह भी इक कमाल है