बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

ग़ज़ल....ek baar phir

आपकी आंखों में नमी भर दी !
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी


उग के सूरज ने धूप क्या कर दी
ज़र्द चेहरों की बढ़ गयी ज़र्दी


आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी 


फिर कहीं बेकसूर ढेर  हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी 


आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!


और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी