हैं तो नजरों में कई चेहरे
देवता लेकिन वही चेहरे
दाम दो तो पांव छू लेंगे
आठ, दस क्या हैं, सभी चेहरे
देख लेना, तेल बेचेंगे
पढ़ रहे हैं फारसी चेहरे
शहर जलता है तो जलने दो
कर रहे हैं आरती चेहरे
फिर सियासत धर्म बन बैठी
लाये कौड़ी दूर की चेहरे
नेकियाँ करने से पहले ही
ढूँढने निकले नदी चेहरे
जन्म, शादी, मौत, कुछ भी हो
पी रहे हैं शुद्ध घी चेहरे
आज पैसे हैं तो मजमा हैं
इतने सारे मतलबी चेहरे
लाज बचनी ही नहीं है अब
मर चुके हैं द्रौपदी चेहरे
इन दिनों अपनों में रहता हूँ
जबकि सब हैं अजनबी चेहरे
रुक्मिणी बोली, कन्हैया ना !
राधा बोली, ना सखी, चेहरे
किसी ने बताया है
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6 दिन पहले
5 टिप्पणियां:
छोटी बहर में अच्छी गजल कही है आपने।
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SBAI TSALIIM
आज की जीवन की विषमताओं का अच्छा चित्रण है आपकी रचना में...
नीरज
ना सखी चेह्रे....खूब आईना दिखाया...आज की राधाओं एव्म् कान्हाओं को ,बधाई भाई
आज पैसा है तो मज़मा है
इतने सारे मतलबी चहरे
वाह, बहुत खूब.
बधाई
चन्द्र मोहन गुप्त
जमाल जी,
आप मेरे ब्लॉग बटोरन पर आये पढ़ा व टिप्पडी की इसके लिए हार्दिक धन्यवाद
जैसा की आपने ध्यान दिया हो ये पोस्ट मेरी नहीं है मूल पोस्ट सिद्धार्थ जी के ब्लॉग सत्यार्थमित्र पर पोस्ट की गई थी मैंने तो केवल उनसे पूछ कर व उनके नाम तथा लिंक के साथ बटोरन पर हूबहू पोस्ट की है इस लिए मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है बस आपसे निवेदन है की आइयेगा जरूर
आपका वीनस केसरी
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