आपकी आंखों में नमी भर दी !
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
उग के सूरज ने धूप क्या कर दी
ज़र्द चेहरों की बढ़ गयी ज़र्दी
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
मै
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अगर आपको भारत वर्ष की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद पर थोड़ी सी भी
आस्था है तो आप किसी भी बीमारी के आयुर्वेदिक ट्रीटमेंट के लिए मुझसे बात कर
सकते हैं.
...
5 माह पहले
33 टिप्पणियां:
aap jaise lekhkon ki ghazal hamesha prerna shrot rahin hain....
mere blog main aaki bebak tippani hetu dhanyvaad,:
"ek mithi si tippani ke hum nahi kayal,
Jab aalachona hi nahi ki to tappani kya hai?"
AUR EK BLOG SHURU KIYA THA KABHI JO NAZAM SULJHANE KE LIYE HI DEDICATED HAI:
HTTP://NAZMULJHIHAI.BLOGSPOT.COM
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
wah bahut khoob.......
bahut hi khoobsoorat lagi yeh ghazal.....
www.lekhnee.blogspot.com
bahut kam hi aisi gazalen hoti hain jo beradif padhane me majaa deti hai.. unmese ye ek hai ,.. wese to har she'r kamayaab hai magar is she'r ke kya kahane... lajawaab shayari ki hai aapne... tazarbaari ki ye baaten achhi lagi huzoor...
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
bahut bahut badhaayee is khubsurat shr'r aur ek mukammal gazal ke liye...
arsh
इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए सर्वत साहब दिली दाद कबूल कीजिये...सारे शेर बहुत असर दार हैं...
नीरज
सर्वत जी ..... धमाकेदार ग़ज़ल है ........ हालत और समाज का आइना है आपकी ग़ज़ल ........ हर शेर काबिले तारीफ़ है
बहुत खूब कहा..........
बेहतरीन कहा..........
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
ग़ज़ल मुबारक !
खाकी पर आपने दो लाइन में ही सबकुछ कह दिया.. बहुत भावनात्माक गज़ल है।
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
सर्वत साहब पुरी की पुरी गजल ही लाजवाव है किस किस शेर की तारीफ़ करुं..... आप ने आईना दिखा दिया, बहुत गहरे भाव है , बहुत दर्द है आप की गजल मे.
धन्यवाद
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों इतनी हमदर्दी!
धारदार व्यंग्य ...बहुत खूब ..!!
sarwat ji, mujhe to ye bhala laga, vaise poori rachna behatareen hai
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
पूरी गज़ल ही लाजवाब है मगर ये शेर दोल को छू गया
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
शुभकामनायें
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
बहुत khoob....!!
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
waah .....!
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
बहुत ही gambhir maslon पर tikhe shbdon का vaar है .....!!
आपकी आंखों में नमी भर दी !
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
बहुत बडा शेर है. वाह! हद शब्द इसके ग़ज़लपन की नींव में है.
ये भी बहुत अच्छा शेर हुआ है-
उग के सूरज ने धूप क्या कर दी
ज़र्द चेहरों की बढ़ गयी ज़र्दी
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
इअसके लिये तो बस आह!
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों इतनी हमदर्दी!
शेर अच्छा है इसमें पेड पौधों के बाद शायद 'से' छपने से रह गया है.
इस उम्दा ग़ज़ल के साथ जन्म दिवस की कोटि-कोटि शुभकामनाएं.
आपके आजके जन्मदिवस की संख्या में दो का गुणा हो.
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
huzoor !!
ye to kamaal kar diyaa aapne
ghazal meiN aisi sachchi baateiN..
aur wo bhi iss itmenaan se keh lena,,
aap hi ke bs ki baat hai
mubarakbaad qubool farmaaeiN
bohot sundar likha aapne, lajawaab sher .
कुछ हट कर कहे गये शेरों ने ग़ज़ल की सुंदरता बढ़ा दी है। यही तेवर तो माँग रही है आज की ग़ज़लें।
साधुवाद सर!
likhte rahe yuhin aap sada,
yahi hai khuda ki marzi
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
"काम आती है नामर्दी" का इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा.
बेहतरीन ग़ज़ल एक बार फिर से.....................
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
वह सर्वत साहब
नए पुराने से क्या होता है
असर चोट खाने से होता है
तालीम तजुर्बा दोनों हाज़िर
पता आजमाने से होता है
हमेशा की तरह शानदार ग़ज़ल
चौथे शेर मे लगानी पद रही है अकल
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी .... क्या बात है ।
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!
वाकई आज मेनका गांधी सरीखे लोग पशुओं के नाम पर नाम रोटी खा ऐश कर रहे हैं आम आदमी को कौन पूछता है,रोज विलुप्त प्र्जातियों ,पौधों -पशुओंसे अखबार पटे हैं .रेड इन्डिय्न्स से शुरू हो कितनी जन जातियाम लुप्त हो गईं ,धोबी-पकावे-पथेरे-रंगरेज व दर्जी[ रेडीमेड के चलते] विलुप्त हो रहें हैं कौन पूछता है ? आपकी चिन्ता वाजिब है
और वाजिब व प्रभाव शाली है आपकी गजल बधाई
श्याम सखा श्याम
भई वाह ....
विचारपूर्ण , झकझोरने वाली गज़ल ।
आपकी आंखों में नमी भर दी !
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
जिंदगी की तल्ख सच्चाईयों को शेरों में आपने बहुत खूबसूरती से पिरोया है। बहुत बहुत बधाई।
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और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।
मोती पिरोये हैं आपने ! शुभकामनायें भाई जी !
कहाँ हो भाई जी ? खैरियत तो है ??
Namaskar
bahut hi lazbaab
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!
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और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
................................
दाद के लिये आम लफ्ज़ों से काम नहीं चलने वाला
यहां तो इसके लिये भी हुनर चाहिये
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
छोटे बहर में बड़े तेवर से लिखते हैं आप!
आपको पढ़ते-पढ़ते बहुत नीचे चला गया... मेरा मतलब है कि कई गज़लें पढ़ लीं..
आइना हूँ मैं दीवार पर
आइये, देखिये, जाइए
--पहले तो इसी शेर को पढ़कर लौटने का मन किया था फिर बेहयायी से पूरा पढ़ गया...
अब लग रहा है कि अच्छा किया आप का ही एक शेर याद आया
--आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
-- खुशी हुई आप को पढ़कर।
नया साल आपको मुबारक हो, हालाँकि बहुत देर से मुबारक पेश कर रहा हूँ. आपने फिल्म देखी, बीयर पी, ख़ाक लुत्फ़ उठाया, ८०% रात बच्चों की फ़िक्र में गुज़ार दी. लेकिन एक बात अगर नहीं कही तो शायद मेरा शुमार काफिरों में हो जाए, जाते हुए साल की और आते हुए साल का पहला लम्हा जिस अंदाज़ से आपने गुज़ारा, उसका ज़िक्र इतने प्यारे अंदाज़ में किया, उसने नए साल की खुशियों में और भी इजाफा कर दिया.
जर्मनी में रहते हुए भी आपने बच्चों की परवरिश जिन संस्कारों के साथ की है, उसके लिए आपको सलाम करता हूँ.
आपकी आंखों में नमी भर दी !
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
hmm bahut gahri baat ......
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
hmm bahut sach
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
bahut hi gahra kataksh ......
aapki gazal bahut pasand aayi
zamane baad aapko padhna achcha laga
likhte rahe
पुरानी ग़ज़लों पर आपकी, टिप्पणी नहीं करता था कि आदाब नहीं पता थे इस ब्लॉग दुनिया के। अब मैं यहाँ तक्ल्लुफ़ से ऊपर, अपने-"पन" तक आ गया हूँ। अपनी पर आते-आते याद आया कि आपकी ये ग़ज़ल-कैसा हॉण्ट करती रहती है - सो आ गया शुक्रिया अदा करने इस स्जे'र का -
"काम आती है सिर्फ़ नामर्दी"
और हम क्या नया-पुराना सोचें - नई जगह है - नए लोग, तो हमारे लिए तो सब कुछ नया ही है।
बहुत ख़ूब है ये तंज़िया अंदाज़।
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