सोमवार, 28 सितंबर 2009

गजल- 71

साथियो! यह गजल पोस्ट करने से पहले मुझे भूमिका जैसा कुछ लिखना पड़ रहा है, कारण, एक गोष्ठी में, दो दिन पूर्व इसका पाठ किया तो कई विद्वानों ने इसे गजल मानने से ही इंकार कर दिया। वहीं कुछ लोगों ने प्रशंसा के पुल खड़े कर दिए। मैं ने गज़लों में प्रयोग किए है, गज़लों को 'महबूब से बातचीत' के दायरे से निकाल कर आम सरोकारों की राह दिखाई है। हो सकता है कुछ चूक मुझ से हो गयी हो जो अपनी आँख के तिनके की तरह दिखाई न दे रहा हो। मुझे आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है। मैं आपकी साफ़, स्पष्ट, भले तीखी हो, उस राय का दिल से स्वागत करूंगा।

ऊंचाई से सारे मंजर कैसे लगते हैं
अन्तरिक्ष से ये कच्चे घर कैसे लगते हैं।

आप बाढ़ के माहिर हैं, बतलायें, ऊपर से
बेबस, भूखे, नंगे, बेघर कैसे लगते हैं।

मुखिया को जब मिली जमानत उसने ये पूछा
अब बस्ती वालों के तेवर कैसे लगते हैं।

रामकली, दो दिन की दुल्हन, इस उलझन में है
ऊंची जात के ठाकुर, देवर कैसे लगते हैं!

रामलाल से ज़मींदार ने हंसकर फरमाया
कहिये, चकबंदी के बंजर कैसे लगते हैं?

कर्जा, कुर्की, हवालात जब झेल चुके, जाना
दस्तावेज़ के काले अक्षर कैसे लगते हैं॥

24 टिप्‍पणियां:

दर्पण साह ने कहा…

WAH WAH....

HAR SHER MUKAMILL GHAZAL: MEHBOOBA SE BAAT?
SIR AB NAYE FALSAFE GADHNE KI ZAROORAT HAI....

...JO AAPNE BAKHUBI GHADE...

MANTRIYON KA HAWAI DAURA TO ATI UTKRISHT THA....
BAAKI BHI BEHTERIN THEY !!

AWESOME !!

निर्मला कपिला ने कहा…

मैं गज़ल की अधिक जानकार तो नहीं मगर मुझे तो पूरी गज़ल लाजवाब लगी बहुत बहुत बधाई

storyteller ने कहा…

गजल जमीन से जुडी हुई है और कई महीन मुद्दों को उठती है, मुझे बहुत पसंद aai , जानना चाहता हूँ की आपका परिवेश कभी ग्रामीण रहा है क्या , मुझे लगता है इन मुद्दों को उठाया जाना चाहिए और इस पर काफी कुछ लिखा जा सकता है

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

भाई सर्वत जी,
आप तो जानते ही हैं कि मैं ग़ज़ल को कोई बड़ा जानकर हूँ और उस पैनी और तकनीकी निगाहों से आपकी इस ग़ज़ल को परख सकूँ. मुझे तो ये लगा कि आपने जनता से बहुत कुछ कह दिया और वह आपको अपने दिलों में उतारने की कोशिश कर रही है, पर भयातुर जनता को उनसे ज्यादा भय है.............ऐसेलोग कुछ भी कर सकते हैं.....

प्रस्तुति बहुत ही असरदार, सत्य के बहुत ज्यादा करीब.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

प्रियवर,
पहले आपकी ग़ज़ल की कहूँ ! आपने समय के सच को शब्द दिए हैं ! सुन्दर ग़ज़ल ! हर बंद बोलता हुआ, और वह भी सच ! खालिस सच !! ग़ज़ल में जो सवाल आपने खडा किया है, वह सच में उत्तर की अपेक्षा रखता है; लेकिन इस निगोडी व्यवस्था में इन सवालों का उत्तर कब मिलेगा, कहना मुश्किल है ! फिर भी सवाल तो खडा कर ही दिया है आपने और वह अंगद के पाँव की तरह अटल रहकर उत्तर मांगता रहेगा... लम्बे समय तक...
अब कुछ अपनी कविताई पर---
आपकी टिपण्णी उत्साहित करनेवाली है ! मैंने छंद-शास्त्र नहीं पढ़ा, छंदयुक्त कवितायेँ भी कम ही लिखी हैं ! दावे से नहीं कह सकता की जो लिखता हूँ (ग़ज़लनुमा चीजें), वे मील-मीटर, लहर-बहर में बिलकुल दुरुस्त होंगी ! युवावस्था में पढने का व्यसन था, तभी दुष्यंतजी की हिंदी गज़लें खूब पढ़ी थीं ! कभी-कभी भावों का आलोडन अधिक हो जाता है, तो उसी तर्ज पर कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ ! आपकी हिदायत सर-आँखों पर ! सीखना जीवन भर चलता रहता है और कभी-कभी उम्र छोटी पड़ जाती है ! बुरा लगने का तो प्रशन ही नहीं उठता, मैं तो ऐसी टिप्पणियों को 'मार्ग-दर्शक' टिपण्णी मानता हूँ !
आभार सहित,
आनंद...

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

main nahin jaanta ye gazal hai ya nahin lekin utkrashttam rachna zaroor kahoonga.

aapki is rachna ne munshi prem chand ki kritiyon ki yaad dila di. bahut khoob.

aapka mere blog par aana aur comment karna hi mere liye kaafi hai, shukriya,

श्रद्धा जैन ने कहा…

मुखिया को जब मिली जमानत उसने ये पूछा
अब बस्ती वालों के तेवर कैसे लगते हैं।

kya baat hai
basti walon ke tewar jamanat milne ke baad kaise honge jab unki sari shikyaten bekaar chali gayi hogi aur pange alag le liye

रामकली, दो दिन की दुल्हन, इस उलझन में है
ऊंची जात के ठाकुर, देवर कैसे लगते हैं!

bahut gahri baat


कर्जा, कुर्की, हवालात जब झेल चुके, जाना
दस्तावेज़ के काले अक्षर कैसे लगते हैं॥

waahhhh waah

Asha Joglekar ने कहा…

muze to pooree gazal bahut achchi lagee. gazal to ek widha hai wishay aapke pasand ka ho sakta hai.

aap badh ke mahir hain batlayen oopar se
bebas bhookhe nange beghar kaise lagte hain.

seedhe marm par chot karata hua sher.
behatareen.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

आप बाढ़ के माहिर हैं, बतलायें, ऊपर से
बेबस, भूखे, नंगे, बेघर कैसे लगते हैं।
बहुत सुन्दर.

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

सर्वत भाई
यूँ कह पाना सबके बस की बात नहीं
सच सह पाना सबके बस की बात नहीं

लानत भेजो दुनिया पर बिंदास रहो
बढ़ते जाना सबके बस की बात नहीं

गर्दूं ने बाहें पहले ही फैला दी हैं
ऐसे तेवर सबके बस की बात नहीं

ऐसी कहन किहिलने लगे निजामत तक
हंगामे तूफ़ान उठाना सबके बस की बात नहीं

हर शेर लाजवाब है
हर थीम जानदार है
आग है तो जलेगी भी
बधाई
फोटो बदल लेने के लिए एक और बार बधाई

डा० अमर कुमार ने कहा…


मलाल है कि, मैं अब तक क्यों न हेर पाया, आपको
भई वाह, बड़ी ताज़गी है, आपके क़तआत में,
इँशाल्लाह फिर मिलना होगा

gazalkbahane ने कहा…

कर्जा, कुर्की, हवालात जब झेल चुके, जाना
दस्तावेज़ के काले अक्षर कैसे लगते हैं॥
न केवल सामयिक बल्कि सच उधेड़ते शब्द हैं बधाई
गज़ल- लोगो का काम तो है कहना
भाई सुने कान से उतार दें -जब खान-पान,संबंध रीत-रिवाज ्सबबदल रहें हैं तो गज़ल के मिजाज़ को भी बदलना ही है।
श्याम सखा श्याम

संजीव गौतम ने कहा…

प्रणाम दादा
ग़ज़ल अच्छी है बिल्कुल नये प्रयोग हैं लेकिन जिन्होंने इसे ग़ज़ल नहीं माना वे भी किसी हद तक सही हैं. कारण शायद ये हो सकता है कि इस तरह के कथ्य में ग़ज़लपन कहीं पीछे छूट जाता है. ख़ैर-- सुबू अपना-अपना है जाम अपना-अपना.
किये जाओ मैख़ारो काम अपना-अपना.

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आपका बहुत बहुत स्वागत है !
बहुत बढ़िया लिखा है आपने |

ग़ज़ल क्या होती है नहीं जानता | पर आपका लिखा दिल तक गया यह जानता हूँ !

और इतना जानता हूँ कि सच को सच बनाने के लिए दो लोगो की जरुरत होती है - एक जो सच बोल सके और दूसरा जो सच सुन सके|
आप सच बोल चुके - इंतज़ार करे सुनने वालो का !

Naveen Tyagi ने कहा…

aapke prayog kabile taareef hai. jan kranti ese hi geeton va gajlon se aati hai.
mahboob ke prayog vaali gajle samaj ko kuch nahi deti. keval padne sunne me hi achchi lagti hai.

daanish ने कहा…

=SIR AB NAYE FALSAFE GADHNE KI ZAROORAT HAI....
=गजल जमीन से जुडी हुई है और कई महीन मुद्दों को उठती है
=प्रस्तुति बहुत ही असरदार, सत्य के बहुत ज्यादा करीब.
=आपने समय के सच को शब्द दिए हैं
=lekin utkrashttam rachna zaroor kahoonga.
=gazal to ek widha hai wishay aapke pasand ka ho sakta hai.
=न केवल सामयिक बल्कि सच उधेड़ते शब्द हैं
=इस तरह के कथ्य में ग़ज़लपन कहीं पीछे छूट जाता है.
=सच को सच बनाने के लिए दो लोगो की जरुरत होती


हुज़ूर ,,,देखिये तो,,,,
अलग अलग लोगों का अलग अलग नज़रिया है ..माना , ग़ज़ल में आजकल नए नए विषयों को लिया जा रहा है ...नए नए प्रयोग किये जा
रहे हैं .......
लेकिन संजीव की बात काबिले-गौर है
ग़ज़ल की एक ये खासियत बहुत एहमियत रखती है क उसमे गेयता होना लाजिमी है
आपके विचार , खयालात के तेवर ,
बहुत उम्दा हैं ...
ग़ज़ल की बुनावट देखें तो.. मुसलसल भी है
बस यहीं कहीं खटका-सा आ गया है
दर-asl ये विषय नज़्म का है ......
एक अच्छी....
बहुत अच्छी नज़्म हो सकती थी
जज़्बात की रु में आप
'फेलुन' से भी पूरा जीत नहीं पाए
ग़ज़ल कहने में ग़ज़ल के स्वभाव के साथ भी चलना पड़ता है

खैर एक बहुत अच्छी रचना पर बधाई ...
और उम्मीद करता हूँ
किसी भी बात का बुरा नहीं मनाएंगे
हो सकता है
अपनी कम-इल्मी की वजह से
मैं कुछ इधर-उधर हो गया होऊं....
मुआफी चाहूँगा
आपकी पुख्ता तख्लिकात को पढने के लिए
हमेशा हमेशा हमेशा ...मुन्तजिर......

मुख्लिस
---मुफलिस---

daanish ने कहा…

aap tashreef laaye,,,
aapne geet padhaa,,,,
yaqeenan...
meri hausla-afzaai hui
bharosa hai....
raabetaa banaaye rakkhenge
---MUFLIS---

Unknown ने कहा…

bahut achhi rachna hai sir,, jo ise jo maanna chahte hain maanne do,, wo maan to rahe hain na...

राज भाटिय़ा ने कहा…

कर्जा, कुर्की, हवालात जब झेल चुके, जाना
दस्तावेज़ के काले अक्षर कैसे लगते हैं॥
सर्वत एम जमाल जी बहुत सुंदर गजल लिखी आप ने, यह तो हर गरीब के दिल की आवाज है,
शुकरिया

अशरफुल निशा ने कहा…

सच को बहुत गहराई से आपने महसूस किया और उसे बयान किया है।
Think Scientific Act Scientific

manu ने कहा…

बहुत तीखापन लिए हैं विचार...
मुसलसल गजल बड़ी संवेदनशील बन पड़ी है ...
हाँ, ये जरूर लग रहा है के शायद ग़ज़ल की नाजुकी के लिहाज से शब्द ज़रा भारी लग रहे हैं...
ये भी लग रहा है के ये सभी ख्याल अगर नज़्म का रूप लेते तो क्या ही बात हो जाती...
लय के हिसाब से फ़ेलुन में कुछ जगह लोच है..
हाँ, ख्याल बहुत बहुत ज्यादा आज के हालत पर कडा प्रहार करते लग रहे हैं...
शायद इसीलिए लग रहा है के ये नज़्म के रूप में और ज्यादा शानदार होती ,

पिछले २ दिन से आपके ब्लॉग पर आ रहा हूँ..पर नेट के ढीलेपन के चलते कमेन्ट आज किया है...
पिछली गजलें भी पढ़ी हैं...
सब के सब असर करती हैं....

बस अपने मुल्क में मुस्लिम है सर्वत
अरब वाले तो हिन्दू बोलते हैं...

बेहद बेहद गजब का मक्ता रहा....लाजवाब.....!!!!!!!!!!!!!!!!

दूसरी बात हमारे ब्लॉग पर जिस मासूमियत से ..इमानदारी से आपने कमेन्ट किया है...
उसे देखकर हैरान हूँ...एक अजीब सा सुखद एहसास हो रहा है जो शायद नहीं होना चाहिए..
बाकी दर्पण ज्यादा समझ सकता है

Kafir ने कहा…

bahut khoob saaheb.
Miyan vidwaano ki to hum nahi jaante parantu hamaare liye to gazal har wo lafz hota hai jo dil se nikalta hai.
kya khoob sanjidagi se aapne itni badi baat kahi hai,hum to kaayal ho gaye hain aapki likhaai ke.

Pawan Kumar ने कहा…

totally agreed with sanjiv gautam comment...excellent.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

Sarwat saahab, aap bas lage rahiye...

Gazal khub kahi hai aapne.