शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

गजल- 69

धूप की नवाज़िश से जिस्म जलने लगता है
शाम शाम कुहरे सा फिर पिघलने लगता है

देश की तरक्की का यूँ हुआ सफर जारी
नींद में कोई बच्चा जैसे चलने लगता है

मसअलोँ पे सब के सब अब तो चुप ही रहते हैं
यह मेरा लहू आख़िर क्यों उबलने लगता है

आप ही बताएं कुछ यह सियाह अँधियारा
रोशनी के साये में कैसे पलने लगता है

ज़िन्दगी की लहरों में रेत भी है, मोती भी
तैरता नहीं है जो, हाथ मलने लगता है

आप हार बैठे हैं, देखिये ज़रा सूरज
दिन उगे निकलता है, शाम ढलने लगता है

तुझ में इतनी तबदीली कैसे आ गयी सर्वत
नर्म नर्म लहजे से तू बहलने लगता है.

19 टिप्‍पणियां:

अमिताभ मीत ने कहा…

आप ही बताएं कुछ ये सियाह अंधियारा
रौशनी के साए में कैसे पलने लगता है

बहुत बढ़िया है.... बहुत उम्दा शेर हैं ...

mehek ने कहा…

waah lajawaab khas kar dusra sher.

अपूर्व ने कहा…

बहुत उम्दा..देश की तरक्की को सही परिभाषित किया आपने

पारुल "पुखराज" ने कहा…

नीद में कोई बच्चा जैसे चलने लगता है ...बहुत खूब

निर्मला कपिला ने कहा…

पूरी गज़ल लाजवाब है बधाई

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

masalo pe..........ubalne lagta hai.

bahut khoob, sabhi sher behatareen. badhai.

aur han aapke mere blog par punragaman, dhanyawaad, geet pasand aaya punah dhanyawaad, comment kiya ek baar phir dhanyawaad, shukriya. sneh banaye rakhen.

Asha Joglekar ने कहा…

Aap har baithe hain Dekhiye jara suraj
Din uge nikalata hai sham dhalane lagata hai.

Nirasha ke beech bhee asha kee kiran diikhati khoob surat rachna.

अर्चना तिवारी ने कहा…

बहुत सुंदर ग़ज़ल है..ख़ास तौर पर ये शे'र..
आप हार बैठे हैं देखिये जरा सूरज
दिन उगे निकलता है शाम ढलने लगता है

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

कहन भी ख्याल भी
करते हैं कमाल जी
लफ्ज़ लफ्ज़ सोना
यही हैं जमाल जी

डुबोते हैं भिगोते हैं
जलते हुए सवाल जी
रंग भी सुरंग भी
यही हैं जमाल जी

इस बार तो हर शेर अलग रंग का है
और हर शेर के हज़ार रंग भी हैं

सोच रहा हूँ कुछ लिखू लेकिन शेर पढ़ते ही डूब के रह जाता हूँ
हर शेर के इतने आयाम खुल रहे हैं
वाह गज़ब
बधाई और धन्यवाद

संजीव गौतम ने कहा…

प्रणाम दादा
डुबाकर अपने साथ लेजाती हुई ग़ज़ल. आपको पढना मुझे बिल्कुल ग़ज़ल के स्कूल में जाने जैसा लगता है. पहले चारों शेर तो गज़ब के हैं.
ये आपने पने ब्लाग को सुरक्षित क्यों कर लिया है क्या इससे रचनाओं की चोरी नहीं हो सकती? अरे कोई देखकर कापी में लिख तो सकता है न? ब्लाग सुरक्षित करने से कापी नहीं कर सकते इस कारण शेर कोट करने में असुविधा होती है. इस पर विचार करें. मैंने तो हटा दिया है. बेकार है.
आपने दो बार आफिस वाले फोन पर फोन किया मैं दोनों ही बार लेट पहुंचा. परसों तक आइडिया का नया कनैक्शन ले रहा हूं उससे आपसे बात करता हूं. आफिस वाले से बात करना ठीक नहीं लगता.

vishnu-luvingheart ने कहा…

shukriya...mere blog pe aane ke liye aur galti ki taraf dhyan aakarshit karne ke liye bhi.
aapki har Gajhal...Ghajal nahi hai.... tasveeren hai aaj ki jo ankhon ko acchi nahi lagti...jise sabhi jante to hai sabhi, par itna waqt nahi ki is tasveeron ko behtar banaya ja sake.

आशीष "अंशुमाली" ने कहा…

मज़बूत गज़ल है.. जितनी तारीफ की जाये कम है

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सामयिक गजलों के लिहाज से एक उत्कृष्ट गजल।

सर्वत साहब, कल से ही आपका नम्बर ट्राई कर रहा हूं, पर लगातार ऑफ जा रहा है।
दरअसल आज उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हजरतगंज, डीएम के बंगले के सामने,
में मेरी पुस्तक "हिन्दी में पटकथा लेखन" का विमोचन हो रहा है। वहां पर
लखनउ के कई सारे ब्लॉगर इकटठा हो रहे हैं। अगर आपको समय मिले, तो आप भी
3.30 पर तशरीफ लाएं, आपसे मिल कर खुशी होगी। इसी बहाने एक छोटी सी
ब्लॉगर्स मीट भी हो जाएगी।
आपके इंतजार में
जाकिर अली रजनीश
9935923334

storyteller ने कहा…

बहुत अच्छी गजल है, नींद मैं कोई बछा जैसे चलने लगता है , मैं भी गजलें लिखने की कोशिश करता हूँ, अपने ब्लॉग पर आपका कमेन्ट पढ़कर बहुत उत्साहवर्धन हुआ,मुझे आपके मार्गदर्शन की जरूरत है , आपका कोई इ मेल आई दी है क्या?

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

संदीप जी कि बात पर गौर करियेगा ताकि कोट करने और टिपण्णी भी करने में मज़ा आये.
ग़ज़ल काफी अच्छी लगी.
बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

राज भाटिय़ा ने कहा…

देश की तरक्की का युं हुया सफ़र जारी,
नींद मे कोई बच्चा जैसे चलने लगता है.
वाह वाह भाई जबाब नही आप की कलम का आप की गजल के सारे शेर एक से बढ कर एक. बहुत अच्छा लगा.
धन्यवाद

नीरज गोस्वामी ने कहा…

सर्वत भाई...आदाब...इस बेहद खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद कबूल फरमाएं...इस ग़ज़ल के सारे के सारे शेर एक से बढ़ कर एक हैं...आज के हालात और इंसानी जज्बातों को क्या खूब पिरोया है आपने अपने अशआरों में...वाह..लिखते रहिये...आपको पढना अच्छा लगता है.
नीरज

sandhyagupta ने कहा…

Har sher umda hai.Badhai.

gazalkbahane ने कहा…

मसअलोँ पे सब के सब अब तो चुप ही रहते हैं
यह मेरा लहू आख़िर क्यों उबलने लगता है

अभी खुद्दारी शेष है भाई इस लिये बधाई