शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

गजल- 65

कहाँ आंखों में आंसू बोलते हैं
मैं मेहनतकश हूँ बाजू बोलते हैं

ज़बानें बंद हैं बस्ती में सबकी
छुरे, तलवार, चाकू बोलते हैं

मुहाफिज़ कुछ कहें, धोखा न खाना
इसी लहजे में डाकू बोलते हैं

कभी महलों की तूती बोलती थी
अभी महलों में उल्लू बोलते हैं

भला तोता और इंसानों की भाषा
मगर पिंजडे के मिट्ठू बोलते हैं

वहां भी पेट ही का मसअला है
जहाँ पैरों में घुँघरू बोलते हैं

जिधर घोडों ने चुप्पी साध ली है
वहीं भाड़े के टट्टू बोलते हैं

बस अपने मुल्क में मुस्लिम हैं सर्वत
अरब वाले तो हिंदू बोलते हैं


21 टिप्‍पणियां:

वीनस केसरी ने कहा…

har ek sher ke tevar dhaardaar hai

kade tevar ki ye gajal bahut pasand aai

venus kesari

admin ने कहा…

Bahut shaandar gazal kahi hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

संजीव गौतम ने कहा…

प्रणाम दादा
चलो अच्छा हुआ आपका कम्प्यूटर ठीक हो गया. रोज सुबह उसे आदाब कहा करिये नहीं तो फिर बुरा मान जायेगा. ग़ज़ल बहुत शानदार हुई है. सारे शेर शानदार और जानदार हैं लेकिन मक्ता बहुत दूर तक ले जाता है.

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

सर्वत भाई
तुमसे होड़ तो लगा नहीं सकता
ये ख्यालात मै तो पा नहीं सकता

अंदाजे तारीफ ने दिल को छू लिया
इसका एहसान मगर चुका नहीं सकता

मुसलमान वाले शेर पर कुछ पुरानी पंक्तियाँ यद् आयी है



शुकराना जिसकी सांसों में यारो पल पल है
चस्मेमोह्ब्बत जिसकी रग रग में कल कल है
जिसको हर एक जुबान खुदा की नेमत लगती है
अपने पहचान मिटा कर जो सब का संबल है

ये यार मुसलमा होना आसां नहीं कोई
वो खुदा का बन्दा क्या जिसने खुशी नहीं बोई
इंसाफ के हक में अड़ ले ये जिसकी कुब्बत है
इन्सान की खातिर जिसकी हर धडकन है दिल है

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

बस अपने मुल्क में है मुस्लिम सर्वत
अरब वाले तो हिन्दू बोलते हैं............

आपने तो बैठे-बैठाये फ्री में संघियों और बीजेपी वालों को हिंदुत्व के समर्थन में एक और तगड़ा शेर पकडा दिया.

कुल मिला कर मैं तो यही कहूँगा की ग़ज़ल मुकम्मल और हर शेर एक से बढ़ कर एक दिल को छू जाने वाले.

बधाई!....बधाई!!.....बधाई!!!................

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

achchhi rachina hai |

mumukshh jee lagtaa hai aap pakke secular hain |

हैरान परेशान ने कहा…

बहुत दमदार शेर हैं. मुमुक्ष जी ने संघ वालों को हथियार देने की बात कही है, लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ यह सच भी है. हाँ मुस्लिम वर्ग में शायद कुछ लोग इससे विचलित हों.

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

मुमुक्छ जी

खुदा के बन्दों की ये फकीराना मस्ती है
इस खुदाई को पाने, दुनिया तरसती है
बे खौफ सच कहना यहाँ का दस्तूर है
आग पर चलने वालो की ये बस्ती है

gazalkbahane ने कहा…

खुद्दारी से आरम्भ होकर हकीकत के कितने कोण दिखाए हैं आपकी इस गज़ल ने ,हर शे`र ठहरने सोचने जज्ब करने को कहता है,एक खूबसूरत गज़ल होने पर बधाई स्वीकारें श्याम सखा श्याम वैसे तो हर शेर पर बहुत कुछ और कहने को है पर मक्ता....
श्याम सखा श्याम

Satish Saxena ने कहा…

दिल को छू गए यह रचना यार, मैं खुद को आपके काफी करीब पता हूँ इस दर्द का अहसास है ...सरबत भाई !

gazalkbahane ने कहा…
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gazalkbahane ने कहा…

सच भाई मैं मन से कह रहा हूं कि गलती से मक्ता

एक बार फ़िर खेंच लाई आपकी यह गज़ल ,वैसे तो मैं यहां नियमित आता हूं मगर यह गज़ल तो किसी की कमसिन आंखों सा बुलावा देगी जाने कितनी बार.हां पिछली बार मैं मक्ते कि बजाए मक्ते पर औरलिखना चाहता था गज़ल का हर शे'र यूं मोतियों मे तोलने लायक है मगर यह बात जो मक्ते में वह शे'र आपका हासिले गज़ल नहीं हासिले कलाम होगा और उस वक्त इस बन्दे को याद रखियेगा .ऐसा मतला कहने के लिये जहनी सोच झरने के साफ़-सफ़्फ़ाक पानी जैसी होनी चाहिये और मैं कह सकता हूं कि आप इस के मोहताज नहीं हैं एक शेर याद आया जो आपके काबिल लगा मुझे
नैन नक्श उसके हैं गजब के सब
देखते रह जाएंगे सब के सब |
शहर में एक आध ही होते हैं
लोग मिलते कहां हैं ढ़ब के सब
पुन: बधाई श्याम सखा श्याम

गर्दूं-गाफिल ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
गर्दूं-गाफिल ने कहा…

सर्वत भाई
न कोई ऊँट न कोई पर्वत
मैं गर्दूं तुम सर्वत तुम शर्बत

फिर श्याम जी ने कह ही दिया है मैं भी इसका समर्थन करता हूँ

शहर में एक आध ही ही होते हैं
लोग मिलते हैं कहाँ ढब के सब

shama ने कहा…

http://shama-shamaneeraj-eksawalblogspotcom.blogspot.com/
Inzaar rahega!

Aapkee rachnayen kuchh aisee hain,ki, unpe comment karnekee mai qabiliyat nahee rakhtee..yahee saty hai..!

http://shamasansmaran.blogspot.com

दर्पण साह ने कहा…

sir shyam sakha ji ki "hasil-e-qulam" wali aur "heeron" wali baat se sehmat hoon.

दर्पण साह ने कहा…

makte ne to wakai katl kar diya...
...ekissvin sadi ki or jaati hui ghazal...
sabse behteerin:
"muhafiz kuch bhi kahein dhokha na khana..."

बेनामी ने कहा…

क्या आप कोई साहित्यिक पत्रिका भी निकलते है ?
यदि हाँ तो आपके लिए एक सूचना है
अखिल भारतीय साहित्य परिषद् १२-१३ सितम्बर को राष्ट्रीय विचार की पत्रिकाओं के सम्पादकों का सम्मेलन दिल्ली में करने जा रही है कृपया अपनी पत्रिका की प्रति निम्नलिखित पते पर शीघ्र भेजें ताकि आमंत्रित किया जा सके

राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री
अखिल भारतीय साहित्य परिषद्
राष्ट्रोत्थान न्यास भवन
नई सड़क ,लश्कर
ग्वालियर ४७४००१ (मध्यप्रदेश )

bhootnath ने कहा…

अरे ये यकायक भूतनाथ कहाँ आ गया भाई.....ये तो ग़ज़ल का समंदर लगता है....इसमें डूब कर हम मर जायेंगे.....ऐसा लगता है....!!...लाजवाब....यकीनन....अद्भुत....निस्संदेह....शानदार
जबरदस्त...और क्या कहूँ...सोचकर आता हूँ....!!

Pushpendra Singh "Pushp" ने कहा…

सर्वत साहब
बहुत सुन्दर
हर मिसरा विचारणीय है |
वहां भी पेट ही का मसअला है
जहाँ पैरों में घुँघरू बोलते हैं
बहुत खूब ................
बस अपने मुल्क में मुस्लिम हैं सर्वत
अरब वाले तो हिंदू बोलते हैं
वाह..वाह ..................
बहुत बहुत आभार

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

aapki ghazlen khubsurat,flsfevaali or gyaanvrdhk yaani ibratnaak hen achcha hi nhin bhut bhut achcha likh rhe ho desh ko is soch ki zrurat he. akhtar khan akela kota rajasthan