लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
कभी अखबार, काफी, चाय,सिग्रेट, पान, बहसों में
कोई आवाज़ उबल कर, ठान कर, खामोश रहती है.
गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है.
दरख्तों पर असर क्या है तेरे होने न होने का
हवा खुद को जरा तूफ़ान कर, खामोश रहती है!
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इन आलेखों में पूर्व विद्वानों द्वारा बताये गये ज्ञान को समेट कर आपके समक्ष
सरल भाषा में प्रस्तुत करने का छोटा सा प्रयत्न मात्र है .औषध प्रयोग से पूर्व
किस...
5 वर्ष पहले
38 टिप्पणियां:
बढिया प्रस्तुति .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाए...
क्या बात है ... बेहतरीन ग़ज़ल है भाई !!
Ghajal bahoot achchi hai, 3-4 ser ko ho sake to thoda aur dam-dar banaiye... 1,2,5 mein gajab ki kasis hai... 3-4 jara halke ho gaye hain... achchi ghajal ke liye dhanyawad...
सर्वत जी,
हमेशा की तरह बहुत ही उम्दा गज़ल.
सभी अशआर बहुत सुंदर.
सर्वत भाई,
हमेशा की तरह पूरे जाह ओ जलाल के साथ ये ग़ज़ल भी क़ारी को बेहद मुतास्सिर करती है ,ख़ास तौर पर ये शेर
गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है.
क्या बात है !
बहुत ख़ूब!
मतला भी बेहद उम्दा है
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
क्या बात है !! बहुत खूब !
समय हों तो ज़रूर पढ़ें :
यानी जब तक जिएंगे यहीं रहेंगे !http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_23.html
shahroz
बहुत खूब .. आपको रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!
आदरणीय सर्वत भाईजान
आदाब !
बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद …
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
दरख्तों पर असर क्या है तेरे होने न होने का
हवा खुद को जरा तूफ़ान कर, खामोश रहती है!
वाह ! वाह ! वाह !
भाईजान , नीचे की गई हिमाक़त के लिए मा'फ़ करदें …
वो करते कोशिशें ; ता'बीर 'सर्वत' ख़्वाब की मिलती ,
हर इक शै जुस्तजू - अरमान कर ' ख़ामोश रहती है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
बेहतरीन ग़ज़ल का इंकलाबी शेर...
रक्षाबंधन पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
ये बुज़दिल कौम…
बहुत ख़ूब हुज़ूर!
न ख़ुद को कौम से समझे जुदा हर शख़्स तो देखें
हुकूमत कैसे बूटी छान कर ख़ामोश रहती है !
बहुत ही उम्दा प्रस्तुति , रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
बेहतरीन्……………।रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
बहुत अच्छी प्रस्तुती बधाई !
कभी अखबार, काफी, चाय,सिग्रेट, पान, बहसों में
कोई आवाज़ उबल कर, ठान कर, खामोश रहती है.
क्या बात है सर्वत साहब. बहुत बड़ा सच है ये. लोग इसी तरह व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं... रक्षाबन्धन की शुभकामनाएं.
wah .... kya sher nikale hain aapne....Garibi,Bhukhmari wala sher to gazab hai bhai.....
हमेशा की तरह लाजवाब ... उम्दा ... बेहतरीन .... आपकी ग़ज़लों का सामाजिक सरोकार हमेशा बुलंद रहता है .... ग़रीबों की आवाज़ बन कर आती है आपकी ग़ज़ल ... हर शेर अलग दास्तान कह रहा है ...
सलाम है आपकी कलाम को ... आपको रक्षा का पर्व बहुत बहुत मुबारक हो ...
लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
-बहुत उम्दा!
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
vaah! vaah! vaah! aha! aanand aa gaya. apna ek doha yaad aa raha hai ijajat ho to arz karoon--
sabko kamiyan hain pata fir bhi sab hain maun.
kewal itni baat hai pahale bole kaun.
aapki ghazalen andar se bahut takat deteen hain.
हमेशा की तरह बहुत अच्छी ग़ज़ल पढ़ने को मिली...आभार
खूबसूरत और उम्दा गजल ।
भाई-बहन के मजबूत रिश्तों का पर्व रक्षाबंधन सब भाई-बहनों के रिश्तों मे मजबूती लाये
लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
बिलकुल दुरुस्त फरमाया हुज़ूर आपने ...यहाँ हूबहू यही हाल है ! करें क्या ??
सर्वत जी,
सभी अशआर बहुत सुंदर...!
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
लाजवाब सर्वत भाई लाजवाब....देर से पहुंचा आपके ब्लॉग पर शर्मिंदा हूँ लेकिन कभी कभी कमबख्त वक्त अपने शिकंजे में इस कदर जकड लेता है के इंसान छूट नहीं पाता सिर्फ छटपटाकर रह जाता है...खैर...इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए जिसका हर अशआर बेश कीमत है, मेरी दाद कबूल फरमाएं...आपका लिखा पढने को दिल हमेशा बेताब रहता है...
नीरज
एक अच्छी रचना पढ़कर प्रसन्न हुआ ।
गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है.
दरख्तों पर असर क्या है तेरे होने न होने का
हवा खुद को जरा तूफ़ान कर, खामोश रहती है!
...शानदार गजल.......बधाई.
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'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)
न कुछ कहें सिर्फ पढ़ते रहें
आंखें जल से भरी रहती हैं
न कुछ कहें सिर्फ पढ़ते रहें
आंखें जल से भरी रहती हैं
गगरी आंखों की छलक न जाये
गगरी मेरी, तेरी नगरी में बहती है
बेहतरीन
सब से पहले तो देर से आने के लिये क्षमा चाहती हूँ। बहुत दिन नेट से दूर रही। बस एक बात कहूँगी कि इतनी शानदार गज़ल शायद ही पहले कहीं पढी हो।
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है.
लाजवाब । बधाई। रक्षा बन्धन पर शुभकामनायें नही दे सकी परिवार मे एक हादसा होने की वजह से।
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.
कभी अखबार, काफी, चाय,सिग्रेट, पान, बहसों में
कोई आवाज़ उबल कर, ठान कर, खामोश रहती है.
गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है.
हमारी कौम का आज का सच है ये । बहुत सुंदर, आक्रोश को तहजीब के आवरण में लपेट कर पेश की हुई गज़ल ।
सर्वत जी, नमस्कार ....बहुत ही उम्दा ग़ज़ल..हर एक शेर लाज़वाब..ऐसे शेर बार बार पढ़े तो भी मन नही भरता...लाज़वाब सर्वत जी...प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
ye sher bahut man bhaya
daad hazir hai kubool karen
लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है
बेहतरीन मतला ...
गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है
आपकी सोच को एक बार फिर से सलाम ||
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है
आनंद आ गया सर्वत भाई !
लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती
Bahut khoob
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.
जानते हुए रिआया की यह खामोशी ही तो है जो उनकी बेज़ा आवाज भी बुलन्द रखती है
वाह क्या गज़ल हि
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