चंडीगढ़ पुलिस ने सेक्टर ४२ के एक गेस्ट हाउस से शंकर मेहता उर्फ़ महतो नामक एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया. इस आदमी पर इलज़ाम है कि वह भीख मांग कर मंहगे होटलों में ठहरने का शौकीन है. पुलिस ने उसके पास से एक मंहगा मोबाइल फोन भी बरामद किया है. मजे की बात यह है कि महतो इस गेस्ट हाउस में पिछले २ माह से रह रहा था और किराये के रूप में ६ हजार रूपयों का भुगतान भी कर चुका था. गिरफ्तारी के वक्त उसके पास से ३ हजार रूपये और मोबाइल फोन बरामद किए गये.
मुलाहिजा फरमाइए, क्या कारनामा अंजाम दिया है पुलिस ने! लगा जैसे माफिया या आतंकवादी को पकड़ लिया हो. जांच करने वाले अधिकारी ने यह भी बताया कि वह गर्मियों में शिमला जाने की योजना बना रहा था. फिलवक्त उस पर भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है.
महतो लकी है कि उसे पुलिस ने भीख मांगने के आरोप में पकड़ा. चाहती तो उसे आतंकवादी बता देती. लश्कर, आई.एस.आई.,उल्फा या किसी अन्य संगठन का सक्रिय सदस्य बता या बना सकती थी. या इस खबर का प्रकाशन यूं भी हो सकता था......कि मुखबिर की सूचना पर, आला अधिकारीयों के निर्देशन में फलां इंस्पेक्टर मय हमराह कांस्टेबल फलां...फलां ने गेस्ट हाउस पर दबिश दे कर चोरी/डकैती/लूट(या जो भी मुनासिब होता) की योजना बनाते महतो को सरकारी गेस्ट हाउस से गिरफ्तार किया. आला अधिकारी उसके अन्य साथियों और पिछली वारदातों हेतु गहन छानबीन कर रहे हैं.
महतो खुशकिस्मत है कि वह अख़बार की एक छोटी सी न्यूज़ बना, वो बड़ी सुर्खी बन सकता था. मय फोटो, खून में लथपथ लाश की सूरत में, कैमरे के सामने लाश के पास असलहे लिए हुए पुलिस वालों के मुस्कुराते चेहरों के साथ. लेकिन शायद चंडीगढ़ पुलिस, देश के दूसरे सूबों की पुलिस के मुकाबले ईमान्दार है या फिर सरकारी गेस्ट हाउस का मामला होने की वजह से वैसा नहीं हो सका जैसा अब तक पुलिस के कारनामों में होता रहा है.
मुझे इस मामले में सिर्फ एक चीज़ समझ में आती है. कुछ माह पहले, हैरान परेशान के ब्लॉग में एक लेख छपा था. उस में पुलिस और भिखारी की तुलना की गयी थी. मुझे अपना एक शेर भी याद आता है:-
हाथ फैलाए खड़े थे दोनों ही फुटपाथ पर
चीथड़ों में एक था और दूसरा वर्दी में था.
शालीनता का तकाज़ा है, वरना पूरा लतीफा सुना देता. फिर भी, वो आख़िरी जुमला लिख रहा हूँ. जो लोग वाकिफ हैं वो तो समझ जाएँगे और जो नावाकिफ हैं वो किसी समझदार को ढूंढ कर मुस्कुराने की आज़ादी हासिल करें.."मांगने को भीख और शौक़ रखते हो नवाबों वाले".
मांगने का काम पुलिस का है. अब यह काम अगर कोई दूसरा कर रहा है तो पुलिस यानी सरकारी काम में न सिर्फ हस्तक्षेप बल्कि अनाधिकार चेष्टा का भी मामला बनता है. चूंकि पुलिस के 'मांगने' को आज़ादी के ६३ वर्षों बाद भी सरकारी मान्यता नहीं मिल सकी. यही कारण है की महतो के भाग्य का सितारा अब तक बुलंद है. सरकार के इस महत्वपूर्ण विषय पर आँखें मूंदे रहने से महतो बच गए वरना ठंडे मौसम ठंडे पड़े होते. फ़िलहाल, पुलिस महतो के फोन की काल डिटेल्स निकलवा रही है और उसका शिमला जाना क्यों हो था है, इस पर भी मनन कर रही है.
मुझे एक और जरूरी बात कहनी है आपसे....
पिछले कुछ अरसे से मन कुछ अजीब सा हो रहा है. गजलों-कविताओं से दिल उचाट हो गया है. मैं शायद अब गजलें पोस्ट न करूं. मुझे इस बात की खुशी है कि इधर पिछले कुछ माह में नए लोगों की की एक बड़ी और बेहतरीन खेप नेट पर अपनी आमद दर्ज करा चुकी है. ऐसे में एक आदमी की रचनाओं के न होने से कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा. मुझे, मेरे इस फैसले के लिए क्षमा कीजिएगा लेकिन खुद से कब तक लड़ा जाए.
और अंत में.... यह कोई पब्लिसिटी स्टंट नहीं है. मैं सच्चे मन से अपनी बात कह रहा हूँ. ब्लॉग पर अन्य विषयों को लेकर आपके साथ हूँ और रहूँगा भी. सिर्फ पोएट्री से अलग हो रहा हूँ.
अगर आप में से कुछ भाई यह सोच रहे हों कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का यह थोथा प्रयास है तो यकीन रखें ऐसी कोई भावना मेरे अंदर नहीं है. लिहाज़ा इस विषय पर अब कोई चर्चा नहीं.
इस लेख पर आपकी राय का इंतज़ार है.
19 टिप्पणियां:
हमारे सरकारी तंत्र की हरकतों का एक नायाब नमूना है , और ऐसी हरकतों करने के लिए इन्हें सार्वभौमिक माफ़ी प्राप्त है , सरकारी तंत्र में इनकी बेवकूफियों और कारनामों के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं है , अखबार में छपने के बाद कुछ दिन का इंतज़ार और फिर सब रफा दफा !
एक शर्मनाक उदाहरण हमारी प्रशासनिक सोच का !!
हां सच है. वर्दी धारियों के कारनामों पर सजा का कोई प्रावधान नहीं है. होता है कभी-कभी ऐसा भी कुछ लिखने को जी ही नहीं करता. लेकिन उम्मीद है कि आप उंगलियों की इस हडताल को जल्द ही खत्म करेंगे.
जब जो मूड में आए लिखिए । मूड बदलता रहता है ! अंदाज तो आपका वही है । चाहे जो लिखें ।
इस तरह के शेर लिखने वाले आप जब कहेंगे कि गजल नहीं लिखेंगे .......ये एक शेर ही दस लेखों पर भारी पड रहा है
हाथ फैलाए खड़े थे दोनों ही फुटपाथ पर
चीथड़ों में एक था और दूसरा वर्दी में था.
कुल मिलाकर वेशभूषा और दमखम का ही फर्क है ....धंधे वही हैं
सर्वत जी .......... वर्दी धारी क्या ..... हमारे देश में नेता लोग सबसे बड़े बिखारी हैं जो भीख लेने के बाद लूटते भी हैं और वो भी सेवा के नाम पर ....
पोइटरी छोड़ने का विचार नही जचा सर, हम जैसे नये खिलाड़ियों को बहुत कुछ लेना है आपसे .......... चर्चा नही कर रहा बस अपना मत व्यक्त कर रहा हूँ .........
sarwat sahab addab, aap ki nasr bhi usi aabo tab ki hai jaisi nazm .har jagah har tarah ke log hote hain ,police ke shobe men bhi donon tarah ke log hain ,agar aik din ham aisi khabron se pareshan hote hain to doosri taraf ummeed abhi khatm nahin hui .
poetry na likhne ke faisle ke bare men bas itna kahne ki jasarat kar rahi hoon ki apne qaraeen ko umda kalaam se mahroom na rakhen ,kuchh dinon ke waqfe ke bad sahi ,mere liye to
ummeed pe duniya qaem hai.
lekh bila shak dabang hai/sachai hai aur vyangya hai.aur bhi aise lekh padhne ko milte rahenge ummeed hai, aapne apni baat kah kar aur kuchh kahne ki gunjaish hi kahan chhodi hai, all is well.
सर्वत साहब
वाह.......... क्या कहने ये बात भी खूब जमीं
बहुत ही अच्छा टोपिक पकड़ा आपने |
कई दिनों से आपके ब्लॉग से मायूस लौट रहा था
पोस्ट पढ़ कर मज़ा आया |
बहुत बहुत आभार ............
सर्वत साहब
वाह.......... क्या कहने ये बात भी खूब जमीं
बहुत ही अच्छा टोपिक पकड़ा आपने |
कई दिनों से आपके ब्लॉग से मायूस लौट रहा था
पोस्ट पढ़ कर मज़ा आया |
बहुत बहुत आभार ............
सर्वत साहब पोस्ट पढ़ कर ये शेर याद आ गया
इब्तेदा-ए-इश्क है रोता है क्या?
आगे आगे देखिए होता है क्या
pranaam dada.
police se ek bhikari ka achchha khana-pina nahi dekha gaya.
jo man aaye vahi kareye. refresh karane ke liye zaroori hai.
सर्वात साहब,
सबसे पहले तो आपको बधाई की आप एक जिम्मेदार ब्लोगर की भूमिका निभा रहे हैं. रिपोर्ट जो अपने अपने अंदाज़ में लिखा है, बहुत सही लगा. रही बात ग़ज़ल की तो हमारे जैसे नौजवान आपकी किसी भी रचना में आपके अनुभव को ही महसूस करते हैं... सो बेफिक्र लिखते रहे... अपना विशाल अनुभव बांटते रहे... हम आते रहेंगे...
आपका शे'र याद आ गया... आज बहुत अकड़ में है वर्दी.
शुक्रिया
सर्वत साहब
आप मेरे ब्लॉग पर आये आपका बहुत -२ शुक्रिया
मगर ये टोकने की आदत मत छोड़िए क्योंकि आपकी यही आदत
आपको औरों से अलग बनाती है |
और आपकी इसी आदत की वजह से बहुत से ब्लोगर को लिखना आगया
जिनमे एक में भी हूँ और कोई माने या न माने लेकिन में आपका शुक्रगुजार हूँ |
आपकी लेखनी का कायल
"पुष्पेन्द्र सिंह"
सर्वत साहब, आदाब
लेख पढ़कर जितना अच्छा लगा, आपकी बाद वाली लाइन से झटका सा भी लगा..
जो नई ’खेप’ आपने कहा है, वो अपना मकाम खुद तलाश लेती है..
लेकिन आपको ऐसा फ़ैसला लेने से बचना होगा, जो आपके कलाम के फ़ैन के लिये, और अदब के लिये मुनासिब न हो.
आलेख पढ कर लगा कि सही मे एक संवेदनशील और समाज के प्रति समर्पित आदमी कैसे सोचता है चिन्ता जनक स्थिति है । मगर सब से अधिक चिन्ताजनक तो आपकी अगली बात है आप ऐसा कैसे कर सकते हैं कि अपने पाठकों से आपको पढने का हक छीन लें । आपकी कविताओं से बहुत कुछ सीखते हैं हम जैसे । दोबारा जरूर सोचें इस पर धन्यवाद और शुभकामनाये। देर बाद आने के लिये क्षमा भी।
भाई जान आप का लेख पढ़ा और सच कहूँ दिल ही दिल में शर्मिंदा हुआ...एक भिखारी का गेस्ट हाउस में ठहरना हमें गंवारा नहीं जबकि हकीकत ये है की हम सब भिकारी ही हैं...सिर्फ बड़े और छोटे का ही फर्क है...पुलिस वाले ही क्या सारे सरकारी अधिकारी क्या भिखारी नहीं हैं? हर काम के लिए खींसे निपोर कर बेशर्मी से पैसा मांगते हैं और लुत्फ़ ये है की फिर भी इज्ज़त दार कहलाते हैं...आप का इस सिस्टम से नाराज़ होना जायज़ है...लेकिन नाराज़ हो कर पोएट्री से रुखसत होना जायज़ नहीं...इन्कलाब शायर नहीं ला सकते ये बात गलत है....इकबाल हों फैज़ हों कैफ़ी हों इन्होने अपने नगमों नज्मों से जो कौमी ज़ज्बा पैदा किया वो बड़े बड़े सूरमा अपने भाषणों से नहीं कर पाए...शायर जो बात दो मिसरों में असरदार ढंग से कह जाता है वो हज़ार सफों की पोथी भी नहीं कह पाती...फैसला आपका है लेकिन मेरी गुज़ारिश है की आप इस बार दुबारा विचार करें क्यूँ की आपकी सोच वाले इंसान अभी बहुत चाहियें जो अपने लफ़्ज़ों से लोगों के सोते हुए ज़ज़बात को जगाएं...आप जैसा शायर क्या रोज रोज पैदा होता है...खुदा की बक्शी हुई इस रहमत को यूँ न ठुकराईये...
नीरज
sarwat ji,
achcha lekh tha kintu aapke aage gazal aur nazm post naa karne ka nirnay sunkar dukh hua.
ek aadmi ke na hone se kaafi farq pad jaata hai.
सर्वतजी सबसे पहले क्षमा प्रार्थी हूं कि आपके ब्लॉग पर पिछले एक माह से नही आ पाई पर इधर लिखा भी कम ही है ।
भिखारी का मौज मनाना हम जैसों को कैसे रास आ सकता है वह तो सिर्फ हम सफेदपोश ही कर सकते हैं । नीरज जी से और दिगंबर नासवा जी से सहमत हूँ कि इस देश में मंत्री, संत्री से लेकर अपसर तक सब भिखारी हैं ।
आप कविता और गजलें लिखना न छोडें । यह एक ऐसी विधा है जो औरों के साथ साथ स्वयं को भी सुकून देती है और कम शब्दों में अपनी बात रकने का मौका भी ।
सर्वत जी
जी हाँ समाज के अलग अलग चेहरे हैं , भिखारी को दान देंगे हम गरीबी मिटा रहे हैं कहेंगे मगर भिखारी को कुछ दिन सकूँ से बैठे खाते नहीं देख सकेंगे
अजीब है
आपका लेखन के लिए बस इतना ही कहूँगी कि बस आप वो करें जो मन को अच्छा लगे
जब कलम खुद ब खुद चल पड़े ग़ज़ल भी हो ही जायेगी
हाथ फैलाए खड़े थे दोनों ही फुटपाथ पर
चीथड़ों में एक था और दूसरा वर्दी में था.poori rachna padi aur saath hi ye panktiyaan bhi ,jawab nahi aapka ,kya kahoon is khoobsurati par shabd nahi .yahi fark hota hai har jagah jabki baat wahi hoti hai ,ek afsar ka chiyars karke badi party me peena adab hai aur udhar chhote se baar me peene walo ko hathkadi laga salakho ke peechhe mujrim karar kar diya jaata hai ,jo subhah hosh me aane par chand majoori par apne parivaar ke liye ek waqt ki roti jodega .ye jaante huye bhi ...
are burai to burai hai ye bhi amir aur garib ke taraju me hi baithi kyo rah gayi .is asamanta par avam samaj par kya kahoon ?
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