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यार अब उनके कमालात कहाँ तक पहुंचेशहर के ताज़ा फसादात कहाँ तक पहुंचे अपनी आँखें हैं खुली, ताकि ये एहसास रहे आगे बढ़ते हुए ख़तरात कहाँ तक पहुंचे उसकी चुप क्या है, कोई सोचने वाला ही नहीं लोग खुश हैं कि सवालात कहाँ तक पहुंचे
पिछले मौसम में सहर फूट पड़ी थी लेकिन देखिये अबके बरस रात कहाँ तक पहुंचे मेरे हालात से वाकिफ हो दरख्तों, कहना तुम पे जंगल के ये असरात कहाँ तक पहुंचे वो पुराने थे, विदेशी थे, उन्हें मत सोचो देखना ये है नये हाथ कहाँ तक पहुंचे सारे इल्जाम तो शहरों पे लगे हैं सर्वत आपको इल्म है देहात कहाँ तक पहुंचे
उत्तर प्रदेश की राजधानी, नवाबों का शहर, तहजीब, नफासत, नजाकत का अलमबरदार शहर....लखनऊ, अब अपनी इन सारी विशेषताओं को खो चुका है। १६ जून की शाम, शहर की इज्जत बने हजरतगंज से लेकर आगे २-३ किलोमीटर तक एक गुंडा भरी सिटी बस में एक विदेशी युवती के अंगो के साथ खिलवाड़ करता रहा और किसी माई के लाल में गैरत, खून और हिम्मत की एक बूँद भी नहीं बची थी कि जुबानी विरोध ही करता। विदेशी महिला खिड़की से सर निकालकर चीखती रही, मदद के लिए किसी 'कृष्ण' को पुकारती रही मगर नपुंसकों के इस शहर में शायद लोग अंधे, बहरे होने के साथ ही सम्वेदनहीनता की पराकाष्ठा भी पार कर गये थे। हद तो यहाँ तक हो गयी कि आगे कन्डक्टर ने पीड़ित युवती को ही जबरन बस से उतार दिया। २८ वर्षीया इडा लोच, डेनमार्क से 'महिलाओं की स्थिति' पर रिसर्च के लिए भारत आयी थीं। हम भारतवासियों, लखनऊ शहर के नागरिकों ने उनके इस शोध में जो 'मदद' की है, उसके लिए समस्त देशवासियों को इस शहर, यहाँ के नागरिकों, प्रशासन, पुलिस, नागरिक तथा महिला संगठनों और राज्य सरकार का सम्मान करना चाहिए। उस बस के ४०-५० मुसाफिरों की नपुंसकता को बधाई देते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूँगा कि जो वीरता भरी नपुंसकता आप ने इडा के मामले में दिखाई , उसे बरकरार रखियेगा और कल जब कोई गुंडा आपकी मां, बहन , बेटी-बहू के साथ ऐसा करे तो अपना व्यवहार १६ जून की शाम जैसा ही रखियेगा।मैं एक गजल पोस्ट करने के इरादे से आया था लेकिन अख़बार की इस खबर ने मुझे गजल वजल से विरत कर दिया। अभी इसे पोस्ट करते समय, मेरे एक मित्र का फोन आ गया और उन्होंने मुझे रोकने की कोशिश की। उनका कहना था कि मेरा गज़लों का ब्लॉग है और मुझे इन फालतू चीज़ों से अपने ब्लॉग को बचाना चाहिए। मैं फ़ैसला ले चुका था कि मैं इस मुद्दे को अपने ब्लॉगर साथियों की अदालत में जरूर पेश करूंगा। लिहाज़ा, सही किया या गलत, यह फ़ैसला आप पर है.
लोग जिसका खा रहे हैं क्या उसी का गा रहे हैं चढ़ गयी इन पर भी चर्बी आइने धुंधला रहे हैं नेग, बख्शिश, भीख, तोहफे पाने वाले पा रहे हैं आप भी गंगा नहायें खून क्यों खौला रहे हैं पेट दिखलाना था जिनको पीठ क्यों दिखला रहे हैं इन फकीरों से सबक लो इनमें कुछ राजा रहे हैं अपने कद को हद में रखना पेड़ काटे जा रहे हैं
सब ये कहते हैं कि हैं सौगात दिनमुझको लगते हैं मगर आघात दिन रात के खतरे गये, सूरज उगा ले के आया है नये ख़तरात दिन तीरगी, सन्नाटा, चुप्पी, सब तो हैं कर रहे हैं रात को भी मात दिन शब के ठुकराए हुओं को कौन गम इन को तो ले लेंगे हाथों हाथ दिन दुःख के थे, भारी लगे, बस इस लिए सब के सब करने लगे खैरात दिन दूध से पानी अलग हो किस तरह लोग कोशिश कर रहे हैं रात दिन हमको बख्शी चार दिन की जिंदगी जबकि थे दुनिया में पूरे सात दिन
हवा पर भरोसा रहा बहुत सख्त धोखा रहा जो बेपर के थे, बस गए परिंदा भटकता रहा कसौटी बदल दी गयी खरा फिर भी खोटा रहा कई सच तो सड़ भी गए मगर झूट बिकता रहा मिटे सीना ताने हुए जो घुटनों के बल था, रहा कदम मैं भी चूमा करूं ये कोशिश तो की बारहाचला था मैं ईमान पर कई रोज़ फाका रहा