गुरुवार, 11 जून 2009

गजल- 62

सब ये कहते हैं कि हैं सौगात दिन
मुझको लगते हैं मगर आघात दिन

रात के खतरे गये, सूरज उगा
ले के आया है नये ख़तरात दिन

तीरगी, सन्नाटा, चुप्पी, सब तो हैं
कर रहे हैं रात को भी मात दिन

शब के ठुकराए हुओं को कौन गम
इन को तो ले लेंगे हाथों हाथ दिन

दुःख के थे, भारी लगे, बस इस लिए
सब के सब करने लगे खैरात दिन

दूध से पानी अलग हो किस तरह
लोग कोशिश कर रहे हैं रात दिन

हमको बख्शी चार दिन की जिंदगी
जबकि थे दुनिया में पूरे सात दिन

5 टिप्‍पणियां:

ओम आर्य ने कहा…

kya khub kaha aapne bahut hi sundar panktiyan

shama ने कहा…

Aapki sabhi rachnayen alag, alag, tippanee kee haqdaar hain..!Aur kya kahun?
Aaj net me kuchh problem hai..lagata koshishon ke baad ab" page load error" jaake hata hai!

Aap mere blog pe aate hain..zarra nawaazi aur hausla afzaee karte hain...tahe dilse shukr guzar hun!

दर्पण साह ने कहा…

shama ji se sehmat hoon ki aapki sab rachnaaein alag alag tippani ki hakddaar hain...

..."Doodh se paani alag ho..."

A good listner is a good speaker.
To aaj wahi kar rah hoon...
..kuch accha likhna hai to kuch zayada hi accha padhna padhega...
aage badhtqa hoon...
itne moti is chitte main ki main to maalamal ho gaya.

दर्पण साह ने कहा…

"Humko bakshi 4 din ki zindagi....

"
sher alag se ddad chah raha tha...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

जनाब सर्वत साहब, आदाब
आपकी एक एक ग़ज़ल पढ़ी जायेगी, कई तो आज ही पढ़ डाली.
एक बात कहें, ये सब कुछ आप कह ही नहीं सकते
ये तो 'कोई' ज़रिया बनाकर पैगाम पहुंचाने का काम कर रहा है
यकीन नहीं, तो इस शेर पर नज़र डालें_
रात के खतरे गये, सूरज उगा
ले के आया है नये ख़तरात दिन
और ये शेर
हमको बख्शी चार दिन की जिंदगी
जबकि थे दुनिया में पूरे सात दिन
बेपनाह ख्वाहिशात और इन्सान की बेबसी पर
कोई ऐसा शेर नज़र से गुजरा है, याद नहीं पड़ रहा
और भी कुछ कहना है आपसे (मेल पर)
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद