पैदा जब अपनी फ़ौज में गद्दार हो गए
कैसे कहूं कि फ़तह के आसार हो गए
आंधी से टूट जाने का खतरा नजर में था
सारे दरख्त झुकने को तैयार हो गए
तालीम, जहन, ज़ौक, शराफत, अदब, हुनर
दौलत के सामने सभी बेकार हो गए
हैरान कर गया हमें दरिया का यह सलूक
जिनको भंवर में फंसना था, वो पार हो गए
आसूदगी, सुकून मयस्सर थे सब मगर
ज़ंजीर उसके पांव की दीनार हो गए
सर्वत किसी को भी नहीं ख्वाहिश सुकून की
अब लोग वहशतों के तलबगार हो गए
*************************************
आप सभी का प्यार, स्नेह लेकर नए वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ. ऊपर वाले से दुआ है कि वर्ष २०१० सब के लिए मंगलकारी और खुशियों से लदा-फंदा हो.
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
ग़ज़ल- ek baar phir
रोशनी सब को दिखलाइये
ख़ुद पे भी गौर फरमाइए
आइना हूँ मैं दीवार पर
आइये, देखिये, जाइए
कौन आजाद है इस जगह
अपने शीशे बदलवाइये
लोग बेहद समझदार हैं
मौसमी गीत मत गाइए
रेत आंखों में भर जायेगी
इस हवा पर न इतराइये
लीजिये मुल्क जलने लगा
अब तो सिगरेट सुलगाइए
ख़ुद पे भी गौर फरमाइए
आइना हूँ मैं दीवार पर
आइये, देखिये, जाइए
कौन आजाद है इस जगह
अपने शीशे बदलवाइये
लोग बेहद समझदार हैं
मौसमी गीत मत गाइए
रेत आंखों में भर जायेगी
इस हवा पर न इतराइये
लीजिये मुल्क जलने लगा
अब तो सिगरेट सुलगाइए
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
gazal-ek baar phir
रोटी, लिबास और मकानों से कट गए
हम सीधे सादे लोग सयानों से कट गए
फिर यूँ हुआ कि सबने उठा ली क़सम यहाँ
फिर यूँ हुआ कि लोग ज़बानों से कट गए
जंगल में बस्तियों का सबब हमसे पूछिए
जंगल के पहरेदार मचानों से कट गए
बुजदिल कहूं उन्हें कि शहीदों में जोड़ लूँ
वो आदमी जो ठौर ठिकानों से कट गए
पटवारी, साहूकार, मवेशी, ज़मीनदार
खूराक मिल गयी तो किसानों से कट गए
दर्पण चमक रहा है उसी आबोताब से
चेहरे तो झुर्रियों के निशानों से कट गए
'सर्वत' जब आफताब उगाने की फ़िक्र थी
सब लोग उल्टे सीधे बहानों से कट गए
हम सीधे सादे लोग सयानों से कट गए
फिर यूँ हुआ कि सबने उठा ली क़सम यहाँ
फिर यूँ हुआ कि लोग ज़बानों से कट गए
जंगल में बस्तियों का सबब हमसे पूछिए
जंगल के पहरेदार मचानों से कट गए
बुजदिल कहूं उन्हें कि शहीदों में जोड़ लूँ
वो आदमी जो ठौर ठिकानों से कट गए
पटवारी, साहूकार, मवेशी, ज़मीनदार
खूराक मिल गयी तो किसानों से कट गए
दर्पण चमक रहा है उसी आबोताब से
चेहरे तो झुर्रियों के निशानों से कट गए
'सर्वत' जब आफताब उगाने की फ़िक्र थी
सब लोग उल्टे सीधे बहानों से कट गए
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
ग़ज़ल....ek baar phir
आपकी आंखों में नमी भर दी !
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
उग के सूरज ने धूप क्या कर दी
ज़र्द चेहरों की बढ़ गयी ज़र्दी
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
उग के सूरज ने धूप क्या कर दी
ज़र्द चेहरों की बढ़ गयी ज़र्दी
आप अगर मर्द हैं तो खुश मत हों
काम आती है सिर्फ़ नामर्दी
फिर कहीं बेकसूर ढेर हुए
आज कितनी अकड़ में है वर्दी
आदमी हूँ, मुझे भी खलता है
पेड़ पौधों से इतनी हमदर्दी!
और बेटी का बाप क्या करता
अपनी पगडी तो पाँव में धर दी
रविवार, 25 अक्तूबर 2009
इसका इलाज आप बताएं..
आठ महीने, दो तिहाई साल, कहने को छोटा सा अरसा है लेकिन यह मुद्दत मुझे इस लिए अज़ीज़ है क्योंकि आपके बेपनाह प्यार, मुहब्बतों ने इसे बहुत बड़ा बना दिया है. मुझे लगा ही नहीं कि मैं ब्लॉग पर नया हूँ. फिलहाल, एक कसक उठती है कभी कभी, ब्लॉग पर आते ही मैंने अपनी पसंदीदा गजलें पोस्ट करनी शुरू कर दी थीं. उनमें कई गजलें ऐसी हैं जो मेरी निगाह में अच्छी हैं लेकिन उन्हें इक्का-दुक्का लोगों के अलावा किसी ने देखा भी नहीं. ब्लॉग पर नए को छोड़कर, पुराने को पढ़ने की परम्परा नहीं के बराबर है.
मुझे एक लालच उकसाता है, इन गज़लों पर भी आपकी प्रतिक्रिया जानने का. अगर मेरा यह लोभ नाजायज़ है तो मुझे बताएं. लेकिन अगर मैं कहीं से भी जायज़ मांग कर रहा हूँ तो समर्थन दें. इन गज़लों में, अधिकाँश के आप तक न पहुँच पाने का मुझे दुःख है.
अगर आप रजामंद हों तो इन गज़लों सिलसिला शुरू करूं....वरना भूल जाता हूँ.
मुझे एक लालच उकसाता है, इन गज़लों पर भी आपकी प्रतिक्रिया जानने का. अगर मेरा यह लोभ नाजायज़ है तो मुझे बताएं. लेकिन अगर मैं कहीं से भी जायज़ मांग कर रहा हूँ तो समर्थन दें. इन गज़लों में, अधिकाँश के आप तक न पहुँच पाने का मुझे दुःख है.
अगर आप रजामंद हों तो इन गज़लों सिलसिला शुरू करूं....वरना भूल जाता हूँ.
शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009
शुभकामना
तमस पर प्रकाश की विजय का पर्व, दीपावली, आपके घर-आंगन, परिवार, इष्ट - मित्रों के जीवन को दीप्तिमान, प्रकाशित करे, यही कामना है. दीपोत्सव के बावजूद रोज़गार अवसर नहीं दे रहा है, हर किसी को अलग-अलग संदेश भेजना कुछ व्यस्तता और कुछ काहिलियत के नाते सम्भव नहीं. आशा है, आप सभी मेरी मजबूरियों को समझते हुए, मंगल कामना स्वीकार करेंगे और अपनी प्रार्थना में मुझे भी शामिल करेंगे.
शुभ दीपोत्सव
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
गजल- 72
होगी तेरी धूम बच्चा
पाँव सब के चूम बच्चा
लोग सब कुछ वार देंगे
बेतहाशा झूम बच्चा
दीन क्या है, धर्म क्या है?
हमको क्या मालूम बच्चा !
कौन जालिम है यहाँ पर
सब तो हैं मजलूम बच्चा
हम से दौलत चाहता है?
हम भी हैं महरूम बच्चा
थम गयी है अब हवा यूँ
जैसे इक मासूम बच्चा
तुझको कुर्सी की तलब है?
ले तिरंगा, घूम बच्चा॥
पाँव सब के चूम बच्चा
लोग सब कुछ वार देंगे
बेतहाशा झूम बच्चा
दीन क्या है, धर्म क्या है?
हमको क्या मालूम बच्चा !
कौन जालिम है यहाँ पर
सब तो हैं मजलूम बच्चा
हम से दौलत चाहता है?
हम भी हैं महरूम बच्चा
थम गयी है अब हवा यूँ
जैसे इक मासूम बच्चा
तुझको कुर्सी की तलब है?
ले तिरंगा, घूम बच्चा॥
सोमवार, 28 सितंबर 2009
गजल- 71
साथियो! यह गजल पोस्ट करने से पहले मुझे भूमिका जैसा कुछ लिखना पड़ रहा है, कारण, एक गोष्ठी में, दो दिन पूर्व इसका पाठ किया तो कई विद्वानों ने इसे गजल मानने से ही इंकार कर दिया। वहीं कुछ लोगों ने प्रशंसा के पुल खड़े कर दिए। मैं ने गज़लों में प्रयोग किए है, गज़लों को 'महबूब से बातचीत' के दायरे से निकाल कर आम सरोकारों की राह दिखाई है। हो सकता है कुछ चूक मुझ से हो गयी हो जो अपनी आँख के तिनके की तरह दिखाई न दे रहा हो। मुझे आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है। मैं आपकी साफ़, स्पष्ट, भले तीखी हो, उस राय का दिल से स्वागत करूंगा।
ऊंचाई से सारे मंजर कैसे लगते हैं
अन्तरिक्ष से ये कच्चे घर कैसे लगते हैं।
आप बाढ़ के माहिर हैं, बतलायें, ऊपर से
बेबस, भूखे, नंगे, बेघर कैसे लगते हैं।
मुखिया को जब मिली जमानत उसने ये पूछा
अब बस्ती वालों के तेवर कैसे लगते हैं।
रामकली, दो दिन की दुल्हन, इस उलझन में है
ऊंची जात के ठाकुर, देवर कैसे लगते हैं!
रामलाल से ज़मींदार ने हंसकर फरमाया
कहिये, चकबंदी के बंजर कैसे लगते हैं?
कर्जा, कुर्की, हवालात जब झेल चुके, जाना
दस्तावेज़ के काले अक्षर कैसे लगते हैं॥
ऊंचाई से सारे मंजर कैसे लगते हैं
अन्तरिक्ष से ये कच्चे घर कैसे लगते हैं।
आप बाढ़ के माहिर हैं, बतलायें, ऊपर से
बेबस, भूखे, नंगे, बेघर कैसे लगते हैं।
मुखिया को जब मिली जमानत उसने ये पूछा
अब बस्ती वालों के तेवर कैसे लगते हैं।
रामकली, दो दिन की दुल्हन, इस उलझन में है
ऊंची जात के ठाकुर, देवर कैसे लगते हैं!
रामलाल से ज़मींदार ने हंसकर फरमाया
कहिये, चकबंदी के बंजर कैसे लगते हैं?
कर्जा, कुर्की, हवालात जब झेल चुके, जाना
दस्तावेज़ के काले अक्षर कैसे लगते हैं॥
बुधवार, 23 सितंबर 2009
गजल- 70
गर हवा में नमी नहीं होती
एक पत्ती हरी नहीं होती
आप किसके लिए परीशां हैं
आग से दोस्ती नहीं होती
हाकिमे-वक्त को सलाम करें
हम से यह बुजदिली नहीं होती
कुछ घरों से धुंआ ही उठता है
हर जगह रोशनी नहीं होती
होंगे सच्चाई के मुहाफिज़ आप
सब पे दीवानगी नहीं होती
साए जिस्मों से भी निकलते हैं
किस जगह तीरगी नहीं होती
सब की चौखट पे सर झुकाते फिरो
इस तरह बन्दगी नहीं होती
मसअले हैं तो इनका हल ढूंढो
फ़िक्र आवारगी नहीं होती
जहन तो सोचने की खातिर है
हम से यह भूल भी नहीं होती
हादसों का तुम्हीं करो मातम
हम से संजीदगी नहीं होती
एक पत्ती हरी नहीं होती
आप किसके लिए परीशां हैं
आग से दोस्ती नहीं होती
हाकिमे-वक्त को सलाम करें
हम से यह बुजदिली नहीं होती
कुछ घरों से धुंआ ही उठता है
हर जगह रोशनी नहीं होती
होंगे सच्चाई के मुहाफिज़ आप
सब पे दीवानगी नहीं होती
साए जिस्मों से भी निकलते हैं
किस जगह तीरगी नहीं होती
सब की चौखट पे सर झुकाते फिरो
इस तरह बन्दगी नहीं होती
मसअले हैं तो इनका हल ढूंढो
फ़िक्र आवारगी नहीं होती
जहन तो सोचने की खातिर है
हम से यह भूल भी नहीं होती
हादसों का तुम्हीं करो मातम
हम से संजीदगी नहीं होती
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
गजल- 69
धूप की नवाज़िश से जिस्म जलने लगता है
शाम शाम कुहरे सा फिर पिघलने लगता है
देश की तरक्की का यूँ हुआ सफर जारी
नींद में कोई बच्चा जैसे चलने लगता है
मसअलोँ पे सब के सब अब तो चुप ही रहते हैं
यह मेरा लहू आख़िर क्यों उबलने लगता है
आप ही बताएं कुछ यह सियाह अँधियारा
रोशनी के साये में कैसे पलने लगता है
ज़िन्दगी की लहरों में रेत भी है, मोती भी
तैरता नहीं है जो, हाथ मलने लगता है
आप हार बैठे हैं, देखिये ज़रा सूरज
दिन उगे निकलता है, शाम ढलने लगता है
तुझ में इतनी तबदीली कैसे आ गयी सर्वत
नर्म नर्म लहजे से तू बहलने लगता है.
शाम शाम कुहरे सा फिर पिघलने लगता है
देश की तरक्की का यूँ हुआ सफर जारी
नींद में कोई बच्चा जैसे चलने लगता है
मसअलोँ पे सब के सब अब तो चुप ही रहते हैं
यह मेरा लहू आख़िर क्यों उबलने लगता है
आप ही बताएं कुछ यह सियाह अँधियारा
रोशनी के साये में कैसे पलने लगता है
ज़िन्दगी की लहरों में रेत भी है, मोती भी
तैरता नहीं है जो, हाथ मलने लगता है
आप हार बैठे हैं, देखिये ज़रा सूरज
दिन उगे निकलता है, शाम ढलने लगता है
तुझ में इतनी तबदीली कैसे आ गयी सर्वत
नर्म नर्म लहजे से तू बहलने लगता है.
रविवार, 30 अगस्त 2009
गजल- ६८
हर कहानी चार दिन की, बस
जिंदगानी, चार दिन की बस
तज़किरा जितने बरस कर लो
नौजवानी चार दिन की, बस
एक दिन सब लौट आयेंगे
बदगुमानी चार दिन की, बस
हुक्मरां सारे मुसाफिर हैं
राजधानी चार दिन की बस
खून टपका, जम गया, तो क्या
यह निशानी चार दिन की, बस
जब हरम में बांदियाँ आयें
फिर तो रानी चार दिन की, बस
जल्द ही सैलाब फूटेगा
बेज़ुबानी चार दिन की, बस
मुल्क पर हर दिन नया खतरा
सावधानी, चार दिन की, बस
जिंदगानी, चार दिन की बस
तज़किरा जितने बरस कर लो
नौजवानी चार दिन की, बस
एक दिन सब लौट आयेंगे
बदगुमानी चार दिन की, बस
हुक्मरां सारे मुसाफिर हैं
राजधानी चार दिन की बस
खून टपका, जम गया, तो क्या
यह निशानी चार दिन की, बस
जब हरम में बांदियाँ आयें
फिर तो रानी चार दिन की, बस
जल्द ही सैलाब फूटेगा
बेज़ुबानी चार दिन की, बस
मुल्क पर हर दिन नया खतरा
सावधानी, चार दिन की, बस
शनिवार, 22 अगस्त 2009
गजल- 67
दुआ की बात करते हो, यहाँ गाली नहीं मिलती
मियां दो रूपये में चाय की प्याली नहीं मिलती
यहाँ जीना तो मुश्किल है मगर मरना मुसीबत है
सुना है अब तो कोई कब्र भी खाली नहीं मिलती
कहीं तो हर कदम पर सिर्फ़ सब्ज़ा ही नजर आए
कहीं सौ कोस चलने पर भी हरियाली नहीं मिलती
हमारे दौर के बच्चों ने सब कुछ देख डाला है
मदारी को तमाशों पर कोई ताली नहीं मिलती
सफेदी ओढ़ने का यह नतीजा है कि लोगों के
लहू में भी लहू जैसी कहीं लाली नहीं मिलती
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, मौत, सब तो हैं
मगर सरकार का दावा है, बदहाली नहीं मिलती!
मियां दो रूपये में चाय की प्याली नहीं मिलती
यहाँ जीना तो मुश्किल है मगर मरना मुसीबत है
सुना है अब तो कोई कब्र भी खाली नहीं मिलती
कहीं तो हर कदम पर सिर्फ़ सब्ज़ा ही नजर आए
कहीं सौ कोस चलने पर भी हरियाली नहीं मिलती
हमारे दौर के बच्चों ने सब कुछ देख डाला है
मदारी को तमाशों पर कोई ताली नहीं मिलती
सफेदी ओढ़ने का यह नतीजा है कि लोगों के
लहू में भी लहू जैसी कहीं लाली नहीं मिलती
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, मौत, सब तो हैं
मगर सरकार का दावा है, बदहाली नहीं मिलती!
बुधवार, 12 अगस्त 2009
गजल- 66
जब जब टुकड़े फेंके जाते हैं
कुत्ते पूंछ हिलाते जाते हैं
हाथ हिला कर कोई चला गया
लोग खुशी से फूले जाते हैं
चेहरा बदला, तख्त नहीं बदला
चेहरे क्या हैं, आते - जाते हैं
इल्म, शराफत हैं कोसों पीछे
सिर्फ़ मुसाहिब आगे जाते हैं
सत्य, अहिंसा, प्यार, दया, ममता
इस रस्ते बेचारे जाते हैं
जीना है तो यह फन भी सीखो
कैसे तलुवे चाटे जाते हैं
सरकारी विज्ञापन पढ़िये तो !
अब भी कसीदे लिक्खे जाते हैं
झंडा, जश्न, सलामी, कुछ नारे
हम नाटक दुहराते जाते हैं।
कुत्ते पूंछ हिलाते जाते हैं
हाथ हिला कर कोई चला गया
लोग खुशी से फूले जाते हैं
चेहरा बदला, तख्त नहीं बदला
चेहरे क्या हैं, आते - जाते हैं
इल्म, शराफत हैं कोसों पीछे
सिर्फ़ मुसाहिब आगे जाते हैं
सत्य, अहिंसा, प्यार, दया, ममता
इस रस्ते बेचारे जाते हैं
जीना है तो यह फन भी सीखो
कैसे तलुवे चाटे जाते हैं
सरकारी विज्ञापन पढ़िये तो !
अब भी कसीदे लिक्खे जाते हैं
झंडा, जश्न, सलामी, कुछ नारे
हम नाटक दुहराते जाते हैं।
शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
गजल- 65
कहाँ आंखों में आंसू बोलते हैं
मैं मेहनतकश हूँ बाजू बोलते हैं
ज़बानें बंद हैं बस्ती में सबकी
छुरे, तलवार, चाकू बोलते हैं
मुहाफिज़ कुछ कहें, धोखा न खाना
इसी लहजे में डाकू बोलते हैं
कभी महलों की तूती बोलती थी
अभी महलों में उल्लू बोलते हैं
भला तोता और इंसानों की भाषा
मगर पिंजडे के मिट्ठू बोलते हैं
वहां भी पेट ही का मसअला है
जहाँ पैरों में घुँघरू बोलते हैं
जिधर घोडों ने चुप्पी साध ली है
वहीं भाड़े के टट्टू बोलते हैं
बस अपने मुल्क में मुस्लिम हैं सर्वत
अरब वाले तो हिंदू बोलते हैं
मैं मेहनतकश हूँ बाजू बोलते हैं
ज़बानें बंद हैं बस्ती में सबकी
छुरे, तलवार, चाकू बोलते हैं
मुहाफिज़ कुछ कहें, धोखा न खाना
इसी लहजे में डाकू बोलते हैं
कभी महलों की तूती बोलती थी
अभी महलों में उल्लू बोलते हैं
भला तोता और इंसानों की भाषा
मगर पिंजडे के मिट्ठू बोलते हैं
वहां भी पेट ही का मसअला है
जहाँ पैरों में घुँघरू बोलते हैं
जिधर घोडों ने चुप्पी साध ली है
वहीं भाड़े के टट्टू बोलते हैं
बस अपने मुल्क में मुस्लिम हैं सर्वत
अरब वाले तो हिंदू बोलते हैं
शनिवार, 27 जून 2009
शुक्रवार, 26 जून 2009
गजल- 64
यार अब उनके कमालात कहाँ तक पहुंचे
शहर के ताज़ा फसादात कहाँ तक पहुंचे
अपनी आँखें हैं खुली, ताकि ये एहसास रहे
आगे बढ़ते हुए ख़तरात कहाँ तक पहुंचे
उसकी चुप क्या है, कोई सोचने वाला ही नहीं
लोग खुश हैं कि सवालात कहाँ तक पहुंचे
पिछले मौसम में सहर फूट पड़ी थी लेकिन
देखिये अबके बरस रात कहाँ तक पहुंचे
मेरे हालात से वाकिफ हो दरख्तों, कहना
तुम पे जंगल के ये असरात कहाँ तक पहुंचे
वो पुराने थे, विदेशी थे, उन्हें मत सोचो
देखना ये है नये हाथ कहाँ तक पहुंचे
सारे इल्जाम तो शहरों पे लगे हैं सर्वत
आपको इल्म है देहात कहाँ तक पहुंचे
शहर के ताज़ा फसादात कहाँ तक पहुंचे
अपनी आँखें हैं खुली, ताकि ये एहसास रहे
आगे बढ़ते हुए ख़तरात कहाँ तक पहुंचे
उसकी चुप क्या है, कोई सोचने वाला ही नहीं
लोग खुश हैं कि सवालात कहाँ तक पहुंचे
पिछले मौसम में सहर फूट पड़ी थी लेकिन
देखिये अबके बरस रात कहाँ तक पहुंचे
मेरे हालात से वाकिफ हो दरख्तों, कहना
तुम पे जंगल के ये असरात कहाँ तक पहुंचे
वो पुराने थे, विदेशी थे, उन्हें मत सोचो
देखना ये है नये हाथ कहाँ तक पहुंचे
सारे इल्जाम तो शहरों पे लगे हैं सर्वत
आपको इल्म है देहात कहाँ तक पहुंचे
बुधवार, 17 जून 2009
ये देश है वीर जवानों का........!!
उत्तर प्रदेश की राजधानी, नवाबों का शहर, तहजीब, नफासत, नजाकत का अलमबरदार शहर....लखनऊ, अब अपनी इन सारी विशेषताओं को खो चुका है। १६ जून की शाम, शहर की इज्जत बने हजरतगंज से लेकर आगे २-३ किलोमीटर तक एक गुंडा भरी सिटी बस में एक विदेशी युवती के अंगो के साथ खिलवाड़ करता रहा और किसी माई के लाल में गैरत, खून और हिम्मत की एक बूँद भी नहीं बची थी कि जुबानी विरोध ही करता। विदेशी महिला खिड़की से सर निकालकर चीखती रही, मदद के लिए किसी 'कृष्ण' को पुकारती रही मगर नपुंसकों के इस शहर में शायद लोग अंधे, बहरे होने के साथ ही सम्वेदनहीनता की पराकाष्ठा भी पार कर गये थे। हद तो यहाँ तक हो गयी कि आगे कन्डक्टर ने पीड़ित युवती को ही जबरन बस से उतार दिया।
२८ वर्षीया इडा लोच, डेनमार्क से 'महिलाओं की स्थिति' पर रिसर्च के लिए भारत आयी थीं। हम भारतवासियों, लखनऊ शहर के नागरिकों ने उनके इस शोध में जो 'मदद' की है, उसके लिए समस्त देशवासियों को इस शहर, यहाँ के नागरिकों, प्रशासन, पुलिस, नागरिक तथा महिला संगठनों और राज्य सरकार का सम्मान करना चाहिए। उस बस के ४०-५० मुसाफिरों की नपुंसकता को बधाई देते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूँगा कि जो वीरता भरी नपुंसकता आप ने इडा के मामले में दिखाई , उसे बरकरार रखियेगा और कल जब कोई गुंडा आपकी मां, बहन , बेटी-बहू के साथ ऐसा करे तो अपना व्यवहार १६ जून की शाम जैसा ही रखियेगा।
मैं एक गजल पोस्ट करने के इरादे से आया था लेकिन अख़बार की इस खबर ने मुझे गजल वजल से विरत कर दिया। अभी इसे पोस्ट करते समय, मेरे एक मित्र का फोन आ गया और उन्होंने मुझे रोकने की कोशिश की। उनका कहना था कि मेरा गज़लों का ब्लॉग है और मुझे इन फालतू चीज़ों से अपने ब्लॉग को बचाना चाहिए। मैं फ़ैसला ले चुका था कि मैं इस मुद्दे को अपने ब्लॉगर साथियों की अदालत में जरूर पेश करूंगा। लिहाज़ा, सही किया या गलत, यह फ़ैसला आप पर है.
२८ वर्षीया इडा लोच, डेनमार्क से 'महिलाओं की स्थिति' पर रिसर्च के लिए भारत आयी थीं। हम भारतवासियों, लखनऊ शहर के नागरिकों ने उनके इस शोध में जो 'मदद' की है, उसके लिए समस्त देशवासियों को इस शहर, यहाँ के नागरिकों, प्रशासन, पुलिस, नागरिक तथा महिला संगठनों और राज्य सरकार का सम्मान करना चाहिए। उस बस के ४०-५० मुसाफिरों की नपुंसकता को बधाई देते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूँगा कि जो वीरता भरी नपुंसकता आप ने इडा के मामले में दिखाई , उसे बरकरार रखियेगा और कल जब कोई गुंडा आपकी मां, बहन , बेटी-बहू के साथ ऐसा करे तो अपना व्यवहार १६ जून की शाम जैसा ही रखियेगा।
मैं एक गजल पोस्ट करने के इरादे से आया था लेकिन अख़बार की इस खबर ने मुझे गजल वजल से विरत कर दिया। अभी इसे पोस्ट करते समय, मेरे एक मित्र का फोन आ गया और उन्होंने मुझे रोकने की कोशिश की। उनका कहना था कि मेरा गज़लों का ब्लॉग है और मुझे इन फालतू चीज़ों से अपने ब्लॉग को बचाना चाहिए। मैं फ़ैसला ले चुका था कि मैं इस मुद्दे को अपने ब्लॉगर साथियों की अदालत में जरूर पेश करूंगा। लिहाज़ा, सही किया या गलत, यह फ़ैसला आप पर है.
शनिवार, 13 जून 2009
गजल- 63
लोग जिसका खा रहे हैं
क्या उसी का गा रहे हैं
चढ़ गयी इन पर भी चर्बी
आइने धुंधला रहे हैं
नेग, बख्शिश, भीख, तोहफे
पाने वाले पा रहे हैं
आप भी गंगा नहायें
खून क्यों खौला रहे हैं
पेट दिखलाना था जिनको
पीठ क्यों दिखला रहे हैं
इन फकीरों से सबक लो
इनमें कुछ राजा रहे हैं
अपने कद को हद में रखना
पेड़ काटे जा रहे हैं
क्या उसी का गा रहे हैं
चढ़ गयी इन पर भी चर्बी
आइने धुंधला रहे हैं
नेग, बख्शिश, भीख, तोहफे
पाने वाले पा रहे हैं
आप भी गंगा नहायें
खून क्यों खौला रहे हैं
पेट दिखलाना था जिनको
पीठ क्यों दिखला रहे हैं
इन फकीरों से सबक लो
इनमें कुछ राजा रहे हैं
अपने कद को हद में रखना
पेड़ काटे जा रहे हैं
गुरुवार, 11 जून 2009
गजल- 62
सब ये कहते हैं कि हैं सौगात दिन
मुझको लगते हैं मगर आघात दिन
रात के खतरे गये, सूरज उगा
ले के आया है नये ख़तरात दिन
तीरगी, सन्नाटा, चुप्पी, सब तो हैं
कर रहे हैं रात को भी मात दिन
शब के ठुकराए हुओं को कौन गम
इन को तो ले लेंगे हाथों हाथ दिन
दुःख के थे, भारी लगे, बस इस लिए
सब के सब करने लगे खैरात दिन
दूध से पानी अलग हो किस तरह
लोग कोशिश कर रहे हैं रात दिन
हमको बख्शी चार दिन की जिंदगी
जबकि थे दुनिया में पूरे सात दिन
मुझको लगते हैं मगर आघात दिन
रात के खतरे गये, सूरज उगा
ले के आया है नये ख़तरात दिन
तीरगी, सन्नाटा, चुप्पी, सब तो हैं
कर रहे हैं रात को भी मात दिन
शब के ठुकराए हुओं को कौन गम
इन को तो ले लेंगे हाथों हाथ दिन
दुःख के थे, भारी लगे, बस इस लिए
सब के सब करने लगे खैरात दिन
दूध से पानी अलग हो किस तरह
लोग कोशिश कर रहे हैं रात दिन
हमको बख्शी चार दिन की जिंदगी
जबकि थे दुनिया में पूरे सात दिन
शुक्रवार, 5 जून 2009
गजल- 61
हवा पर भरोसा रहा
बहुत सख्त धोखा रहा
जो बेपर के थे, बस गए
परिंदा भटकता रहा
कसौटी बदल दी गयी
खरा फिर भी खोटा रहा
कई सच तो सड़ भी गए
मगर झूट बिकता रहा
मिटे सीना ताने हुए
जो घुटनों के बल था, रहा
कदम मैं भी चूमा करूं
ये कोशिश तो की बारहा
चला था मैं ईमान पर
कई रोज़ फाका रहा
बहुत सख्त धोखा रहा
जो बेपर के थे, बस गए
परिंदा भटकता रहा
कसौटी बदल दी गयी
खरा फिर भी खोटा रहा
कई सच तो सड़ भी गए
मगर झूट बिकता रहा
मिटे सीना ताने हुए
जो घुटनों के बल था, रहा
कदम मैं भी चूमा करूं
ये कोशिश तो की बारहा
चला था मैं ईमान पर
कई रोज़ फाका रहा
गुरुवार, 7 मई 2009
गजल- 60
एक ही आसमान सदियों से
चंद ही खानदान सदियों से
धर्म, कानून और तकरीरें
चल रही है दुकान सदियों से
काफिले आज तक पड़ाव में हैं
इतनी लम्बी थकान, सदियों से !
सच, शराफत, लिहाज़, पाबंदी
है न सांसत में जान सदियों से
कोई बोले अगर तो क्या बोले
बंद हैं सारे कान सदियों से
कारनामे नजर नहीं आते
उल्टे सीधे बयान सदियों से
फायदा देखिये न दांतों का
क़ैद में है जबान सदियों से
झूठ, अफवाहें हर तरफ सर्वत
भर रहे हैं उडान सदियों से
चंद ही खानदान सदियों से
धर्म, कानून और तकरीरें
चल रही है दुकान सदियों से
काफिले आज तक पड़ाव में हैं
इतनी लम्बी थकान, सदियों से !
सच, शराफत, लिहाज़, पाबंदी
है न सांसत में जान सदियों से
कोई बोले अगर तो क्या बोले
बंद हैं सारे कान सदियों से
कारनामे नजर नहीं आते
उल्टे सीधे बयान सदियों से
फायदा देखिये न दांतों का
क़ैद में है जबान सदियों से
झूठ, अफवाहें हर तरफ सर्वत
भर रहे हैं उडान सदियों से
मंगलवार, 5 मई 2009
गजल- 59
हैं तो नजरों में कई चेहरे
देवता लेकिन वही चेहरे
दाम दो तो पांव छू लेंगे
आठ, दस क्या हैं, सभी चेहरे
देख लेना, तेल बेचेंगे
पढ़ रहे हैं फारसी चेहरे
शहर जलता है तो जलने दो
कर रहे हैं आरती चेहरे
फिर सियासत धर्म बन बैठी
लाये कौड़ी दूर की चेहरे
नेकियाँ करने से पहले ही
ढूँढने निकले नदी चेहरे
जन्म, शादी, मौत, कुछ भी हो
पी रहे हैं शुद्ध घी चेहरे
आज पैसे हैं तो मजमा हैं
इतने सारे मतलबी चेहरे
लाज बचनी ही नहीं है अब
मर चुके हैं द्रौपदी चेहरे
इन दिनों अपनों में रहता हूँ
जबकि सब हैं अजनबी चेहरे
रुक्मिणी बोली, कन्हैया ना !
राधा बोली, ना सखी, चेहरे
देवता लेकिन वही चेहरे
दाम दो तो पांव छू लेंगे
आठ, दस क्या हैं, सभी चेहरे
देख लेना, तेल बेचेंगे
पढ़ रहे हैं फारसी चेहरे
शहर जलता है तो जलने दो
कर रहे हैं आरती चेहरे
फिर सियासत धर्म बन बैठी
लाये कौड़ी दूर की चेहरे
नेकियाँ करने से पहले ही
ढूँढने निकले नदी चेहरे
जन्म, शादी, मौत, कुछ भी हो
पी रहे हैं शुद्ध घी चेहरे
आज पैसे हैं तो मजमा हैं
इतने सारे मतलबी चेहरे
लाज बचनी ही नहीं है अब
मर चुके हैं द्रौपदी चेहरे
इन दिनों अपनों में रहता हूँ
जबकि सब हैं अजनबी चेहरे
रुक्मिणी बोली, कन्हैया ना !
राधा बोली, ना सखी, चेहरे
रविवार, 3 मई 2009
गजल- 58
एक एक जहन पर वही सवाल है
लहू लहू में आज फिर उबाल है
इमारतों में बसने वाले बस गए
मगर वो जिसके हाथ में कुदाल है ?
उजाले बाँटने की धुन तो आजकल
थकन से चूर चूर है, निढाल है
तरक्कियां तुम्हारे पास हैं तो हैं
हमारे पास भूख है, अकाल है
कलम का सौदा कीजिये, न चूकिए
सुना है कीमतों में फिर उछाल है
गरीब मिट गये तो ठीक होगा सब
अमीरी इस विचार पर निहाल है
तुम्हारी कोशिशें कुछ और थीं, मगर
हम आदमी हैं, यह भी इक कमाल है
लहू लहू में आज फिर उबाल है
इमारतों में बसने वाले बस गए
मगर वो जिसके हाथ में कुदाल है ?
उजाले बाँटने की धुन तो आजकल
थकन से चूर चूर है, निढाल है
तरक्कियां तुम्हारे पास हैं तो हैं
हमारे पास भूख है, अकाल है
कलम का सौदा कीजिये, न चूकिए
सुना है कीमतों में फिर उछाल है
गरीब मिट गये तो ठीक होगा सब
अमीरी इस विचार पर निहाल है
तुम्हारी कोशिशें कुछ और थीं, मगर
हम आदमी हैं, यह भी इक कमाल है
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
ग़ज़ल- 23
कभी आका कभी सरकार लिखना
हमें भी आ गया किरदार लिखना
ये मजबूरी है या व्यापार , लिखना
सियासी जश्न को त्यौहार लिखना
हमारे दिन गुज़र जाते हैं लेकिन
तुम्हें कैसी लगी दीवार, लिखना
गली कूचों में रह जाती हैं घुट कर
अब अफवाहें सरे बाज़ार लिखना
तमांचा सा न जाने क्यों लगा है
वतन वालों को मेरा प्यार लिखना
ये जीवन है कि बचपन की पढाई
एक एक गलती पे सौ सौ बार लिखना
कुछ इक उनकी नज़र में हों तो जायज़
मगर हर शख्स को गद्दार लिखना ?
हमें भी आ गया किरदार लिखना
ये मजबूरी है या व्यापार , लिखना
सियासी जश्न को त्यौहार लिखना
हमारे दिन गुज़र जाते हैं लेकिन
तुम्हें कैसी लगी दीवार, लिखना
गली कूचों में रह जाती हैं घुट कर
अब अफवाहें सरे बाज़ार लिखना
तमांचा सा न जाने क्यों लगा है
वतन वालों को मेरा प्यार लिखना
ये जीवन है कि बचपन की पढाई
एक एक गलती पे सौ सौ बार लिखना
कुछ इक उनकी नज़र में हों तो जायज़
मगर हर शख्स को गद्दार लिखना ?
रविवार, 29 मार्च 2009
ग़ज़ल की बात कहाँ से कहाँ निकल आई
सदियों पहले जब गज़लों ने भारत में कदम रखे तब ईरान से चली इस इस विधा की भाषा फारसी थी और परिभाषा थी- 'महबूब से बातचीत।' उन दिनों हिन्दुस्तानी भाषा (हिन्दी/उर्दू) में जिन लोगों ने गजलें कहने की कोशिश की, उन्हें जाहिल, गंवार तक कहा गया। कारण था, गज़लों का फारसी भाषा में न होना। उस ज़माने आम तौर पर शहंशाह, नवाब, ज़मींदार और ऊंचे तबके के, पढ़े-लिखे लोग ही शायरी करते थे। उन लोगों ने यह ग्रंथि पाली थी कि गज़ल सिर्फ़ और सिर्फ़ फारसी में ही होगी। गज़ल का मज़मून भी महबूब -इश्क-मुहब्बत-शराब तक ही सीमित था।
लेकिन धीरे धीरे गज़ल ने अपने पांव पसारने शुरू किए। गज़ल उर्दू भाषा में हिन्दुस्तानी अवाम के दिलो-दिमाग पर राज कने लगी। फिर भी गज़ल के (परंपरागत) विषय से हटने की जुर्रत किसी भी शायर ने नहीं दिखाई।
लगभग चार सौ का ज़माना हुआ, हैदराबाद दकन पढ़े-लिखे लोगों की बस्ती थी, शायरी की धूम थी। ऐसे वक्त में 'वली' ' दकनी का यह शेर(मतला) अवाम की जुबान पर चढ़ गया:
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतबार खोती है।
उस दौर में यह गज़ल का विषय था ही नहीं। बहुतों ने नाक-भौं चढाई। मगर जिस शेर को अवाम ने सर चढा लिया हो, उससे निगाहें फेरना भी मुमकिन नहीं था। बाद के दिनों में मीर, सौदा, इंशा, हांली , मोमिन वगैरह ने तो वली दकनी के शेर की रोशनी को और जिंदगी बख्शी। मिर्जा ग़ालिब ने तो गज़लों को एक नया और अनूठा लहजा तक दे डाला। इकबाल, फैज़, जोश, फिराक, साहिर ने ग़ालिब की परम्परा को आगे, बहुत आगे पहुँचा दिया। लगभग चार सौ सालों से गज़ल भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में लोगों के दिलों पर राज कर रही है और अभी दूए-दूर तक इसकी लोकप्रियता कम होने के आसार भी नज़र नहीं आते।
हिन्दी साहित्य की महान विभूति पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने गज़लों की हिन्दी में शुरूआत की। बात आई गयी हो गयी (कबीर तथा उनके समकालीन कई रचनाकारों ने भी गजलें कहने की कोशिशें की हैं)। लेकिन...हिन्दी गज़लों का चलन शुरू हो गया। बात फिर भी नहीं बन रही थी। उर्दू गजलें - हिन्दी गज़लों पर २१ नहीं, २८-३० पड़ रही थीं। हिन्दी गज़लकार भी दोषी करार दिए जायेंगे कि उन्हों ने गज़लों पर मेहनत नहीं की, बल्कि हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को जबरन ठूंसने जैसी हरकतें ज़्यादा कीं। फिर... दुष्यंत कुमार का आगमन हुआ. छोटी सी उम्र में एक नन्हा सा गज़ल संग्रह 'साए में धूप' क्या आया, हिन्दी गजलों की धूम मच गयी.उर्दू के शायरों तक ने दुष्यंत और हिन्दी गजल का लहजा अपनाया. यही सिलसिला जारी है और मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं की दुष्यंत ने साए में धूप से जिस सफर की शुरूअत की थी, बाद के रचनाकारों ने उसे मंजिल के काफी करीब पहुंचा दिया.
हिन्दी गजलों की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है बहुत से प्रख्यात गीतकार, कथाकार, निबंधकार यहाँ तक की कविता (अतुकांत) के लोग भी इस विधा से जोर अजमाइश करते नज़र आए । मुझे कुछ या किसी का भी नाम लेने, बताने की ज़रूरत नहीं हकीकत यह है की गीतों/कहानियों/निबंधों और अखबारों में खबरें लिखकर अपनी लेखनी का लोहा मनवा लेने वाले रचनाकार, गजल के मोह में फंसकर, बुरी तरह धराशायी हो गए। उनका यह गजल प्रेम, गजल की भाषा में कुछ ऐसा ही था:
खरीदें अब चलो रुस्वाइयां भी
चलो उसकी गली भी देख आयें
दरअसल गजल ने जब महबूब का दामन छोड़कर, आम आदमी के सरोकारों से नाता जोड़ा, फारसी या गाढी वाली उर्दू की आगोश से निकालकर, आम बोलचाल की भाषा के पहलू में बैठी तो यह ख़ास ही नहीं, आम की भी चहेती बन गयी सिर्फ दो मिसरों में एक पूरी कहानी समो लेना, गजल का ऐसा हुनर है, जिसने पाठकों/श्रोताओं के साथ कलमकारों को भी अपने आकर्षण से जकड लिया। एक बाद सी आई हुई है गजलों और गजलकारों की। गजलों को सामंती व्यवस्था का पैरोकार, नशा पिलाने वाली, कोठे वाली कह रही पत्रिकाओं ने भी गजल विशेषांक प्रकाशित किए। बहुत से लोगों ने तो गजल संग्रह प्रकाशित कराने-कराने का धंधा ही खडा कर लिया है
लेकिन गजलकारों के इस सैलाब में कामयाब कितने हैं? गजल की शास्त्रीयता, उसके नियम, कायदे-क़ानून को जाने-समझे बगैर लोगों ने लिखना शुरू कर दिया और अवाम ने उन्हें नकारना। परन्तु गज़लकारों ने हौसला नहीं छोड़ा। एक बड़ी तादाद ने इसका भी हल ढूंढ लिया। वे छाती ठोंककर कहते हैं -"ये हिन्दी गज़ल है, ये ऐसी ही होती है।'
सवाल यह है कि अगर यह' ऐसी ही होती है' तो दुष्यंत कुमार की ऐसी क्यों नहीं हैं? तुफैल चतुर्वेदी, महेश अश्क, सुलतान अहमद, इब्राहीम अश्क, अदम गोंडवी,ज्ञान प्रकाश विवेक, विज्ञानं व्रत,देवेन्द्र आर्य, अंसार कंबरी, राजेंद्र तिवारी, शेरजंग गर्ग और इस 'नाचीज़' की ऐसी क्यों नहीं? क्या वो तमाम गज़लगो, जो गज़लों को मीटर (बहरों) की बंदिश में रखते हुए भी,कथ्य को शेरो की शक्ल देने में कामयाब हैं, हिन्दी गजलें नहीं कह रहे हैं? अगर हिन्दी गज़लों का अर्थ अशुद्धियाँ-त्रुटियां ही हैं तो उन रचनाकारों को चाहिए कि वे दुष्यंत को भी हिन्दी गज़ल के खेमे से खारिज कर दे।
गजलें लगभग ४०० साल से भारत में लोकप्रिय हैं। पिछले ३०-३५ वर्षों से हिन्दी गज़ल के नाम पर कुछ लोगों द्वारा जो परोसा जा रहा है, भारतीय जनमानस उसे लगातार नकारता आ रहा है। अगर चार सदियों में, शायरों ने गज़ल के कायदे-कानून सीखकर ही शायरी की तो ये बाकी लोग सीखने से गुरेज़ क्यों रखते हैं? क्या भारतीय चुनाव व्यवस्था की तरह 'इतने सरे बुरे लोगों में से कम बुरे को चुने ' की तर्ज़ पर ये लोग अपनी गजलें भी परवान चढाना चाहते हैं? गज़ल को गज़ल ही रहने दे। न लिख सकें तो कविता की कई विधाएं हैं, उनमें कलम आजमायें। गज़ल ही लिखने के लिए किसी डाक्टर ने मशविरा दिया है क्या?
लेकिन धीरे धीरे गज़ल ने अपने पांव पसारने शुरू किए। गज़ल उर्दू भाषा में हिन्दुस्तानी अवाम के दिलो-दिमाग पर राज कने लगी। फिर भी गज़ल के (परंपरागत) विषय से हटने की जुर्रत किसी भी शायर ने नहीं दिखाई।
लगभग चार सौ का ज़माना हुआ, हैदराबाद दकन पढ़े-लिखे लोगों की बस्ती थी, शायरी की धूम थी। ऐसे वक्त में 'वली' ' दकनी का यह शेर(मतला) अवाम की जुबान पर चढ़ गया:
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतबार खोती है।
उस दौर में यह गज़ल का विषय था ही नहीं। बहुतों ने नाक-भौं चढाई। मगर जिस शेर को अवाम ने सर चढा लिया हो, उससे निगाहें फेरना भी मुमकिन नहीं था। बाद के दिनों में मीर, सौदा, इंशा, हांली , मोमिन वगैरह ने तो वली दकनी के शेर की रोशनी को और जिंदगी बख्शी। मिर्जा ग़ालिब ने तो गज़लों को एक नया और अनूठा लहजा तक दे डाला। इकबाल, फैज़, जोश, फिराक, साहिर ने ग़ालिब की परम्परा को आगे, बहुत आगे पहुँचा दिया। लगभग चार सौ सालों से गज़ल भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में लोगों के दिलों पर राज कर रही है और अभी दूए-दूर तक इसकी लोकप्रियता कम होने के आसार भी नज़र नहीं आते।
हिन्दी साहित्य की महान विभूति पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने गज़लों की हिन्दी में शुरूआत की। बात आई गयी हो गयी (कबीर तथा उनके समकालीन कई रचनाकारों ने भी गजलें कहने की कोशिशें की हैं)। लेकिन...हिन्दी गज़लों का चलन शुरू हो गया। बात फिर भी नहीं बन रही थी। उर्दू गजलें - हिन्दी गज़लों पर २१ नहीं, २८-३० पड़ रही थीं। हिन्दी गज़लकार भी दोषी करार दिए जायेंगे कि उन्हों ने गज़लों पर मेहनत नहीं की, बल्कि हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को जबरन ठूंसने जैसी हरकतें ज़्यादा कीं। फिर... दुष्यंत कुमार का आगमन हुआ. छोटी सी उम्र में एक नन्हा सा गज़ल संग्रह 'साए में धूप' क्या आया, हिन्दी गजलों की धूम मच गयी.उर्दू के शायरों तक ने दुष्यंत और हिन्दी गजल का लहजा अपनाया. यही सिलसिला जारी है और मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं की दुष्यंत ने साए में धूप से जिस सफर की शुरूअत की थी, बाद के रचनाकारों ने उसे मंजिल के काफी करीब पहुंचा दिया.
हिन्दी गजलों की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है बहुत से प्रख्यात गीतकार, कथाकार, निबंधकार यहाँ तक की कविता (अतुकांत) के लोग भी इस विधा से जोर अजमाइश करते नज़र आए । मुझे कुछ या किसी का भी नाम लेने, बताने की ज़रूरत नहीं हकीकत यह है की गीतों/कहानियों/निबंधों और अखबारों में खबरें लिखकर अपनी लेखनी का लोहा मनवा लेने वाले रचनाकार, गजल के मोह में फंसकर, बुरी तरह धराशायी हो गए। उनका यह गजल प्रेम, गजल की भाषा में कुछ ऐसा ही था:
खरीदें अब चलो रुस्वाइयां भी
चलो उसकी गली भी देख आयें
दरअसल गजल ने जब महबूब का दामन छोड़कर, आम आदमी के सरोकारों से नाता जोड़ा, फारसी या गाढी वाली उर्दू की आगोश से निकालकर, आम बोलचाल की भाषा के पहलू में बैठी तो यह ख़ास ही नहीं, आम की भी चहेती बन गयी सिर्फ दो मिसरों में एक पूरी कहानी समो लेना, गजल का ऐसा हुनर है, जिसने पाठकों/श्रोताओं के साथ कलमकारों को भी अपने आकर्षण से जकड लिया। एक बाद सी आई हुई है गजलों और गजलकारों की। गजलों को सामंती व्यवस्था का पैरोकार, नशा पिलाने वाली, कोठे वाली कह रही पत्रिकाओं ने भी गजल विशेषांक प्रकाशित किए। बहुत से लोगों ने तो गजल संग्रह प्रकाशित कराने-कराने का धंधा ही खडा कर लिया है
लेकिन गजलकारों के इस सैलाब में कामयाब कितने हैं? गजल की शास्त्रीयता, उसके नियम, कायदे-क़ानून को जाने-समझे बगैर लोगों ने लिखना शुरू कर दिया और अवाम ने उन्हें नकारना। परन्तु गज़लकारों ने हौसला नहीं छोड़ा। एक बड़ी तादाद ने इसका भी हल ढूंढ लिया। वे छाती ठोंककर कहते हैं -"ये हिन्दी गज़ल है, ये ऐसी ही होती है।'
सवाल यह है कि अगर यह' ऐसी ही होती है' तो दुष्यंत कुमार की ऐसी क्यों नहीं हैं? तुफैल चतुर्वेदी, महेश अश्क, सुलतान अहमद, इब्राहीम अश्क, अदम गोंडवी,ज्ञान प्रकाश विवेक, विज्ञानं व्रत,देवेन्द्र आर्य, अंसार कंबरी, राजेंद्र तिवारी, शेरजंग गर्ग और इस 'नाचीज़' की ऐसी क्यों नहीं? क्या वो तमाम गज़लगो, जो गज़लों को मीटर (बहरों) की बंदिश में रखते हुए भी,कथ्य को शेरो की शक्ल देने में कामयाब हैं, हिन्दी गजलें नहीं कह रहे हैं? अगर हिन्दी गज़लों का अर्थ अशुद्धियाँ-त्रुटियां ही हैं तो उन रचनाकारों को चाहिए कि वे दुष्यंत को भी हिन्दी गज़ल के खेमे से खारिज कर दे।
गजलें लगभग ४०० साल से भारत में लोकप्रिय हैं। पिछले ३०-३५ वर्षों से हिन्दी गज़ल के नाम पर कुछ लोगों द्वारा जो परोसा जा रहा है, भारतीय जनमानस उसे लगातार नकारता आ रहा है। अगर चार सदियों में, शायरों ने गज़ल के कायदे-कानून सीखकर ही शायरी की तो ये बाकी लोग सीखने से गुरेज़ क्यों रखते हैं? क्या भारतीय चुनाव व्यवस्था की तरह 'इतने सरे बुरे लोगों में से कम बुरे को चुने ' की तर्ज़ पर ये लोग अपनी गजलें भी परवान चढाना चाहते हैं? गज़ल को गज़ल ही रहने दे। न लिख सकें तो कविता की कई विधाएं हैं, उनमें कलम आजमायें। गज़ल ही लिखने के लिए किसी डाक्टर ने मशविरा दिया है क्या?
गुरुवार, 19 मार्च 2009
शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
ग़ज़ल
क्या है और क्या पास नहीं है
लोगों को एहसास नहीं है।
आईनें बोला करते हैं
चेहरों को विश्वास नहीं है.
हमने भी जीती हैं जंगें
यह सच है, इतिहास नहीं है।
थोड़ा और उबर के देखो
जीवन कारावास नहीं है।
बाहर तो सारे मौसम हैं
आँगन में मधुमास नहीं है।
इक जीवन , इतने समझौते
हमको बस अभ्यास नहीं है।
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009
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