शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

ग़ज़ल

लोग वहम-ओ-गुमान रखते हैं 
अपने हक में बयान रखते हैं 


मुल्क आखिर यकीन किस पे करे 
सब हथेली पे जान रखते हैं 


मालिक-ए-दो जहाँ समझता है 
जो ज़बां बेज़बान रखते हैं 


अब गले मिलते हैं कहाँ इंसान 
फासला दरमियान रखते हैं 


आप सच बोलने का अज्म करें 
किस्सा गो दास्तान रखते हैं 


पाँव किसके ज़मीं पे हैं 'सर्वत'
सभी ऊंची उड़ान रखते हैं 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

नई ग़ज़ल


सौ जतन से क्या बोलें
 अपने मन से क्या बोलें


उम्र भर खमोशी थी
 अन्जुमन से क्या बोलें 


आबले हैं पैरों में 
हम थकन से क्या बोलें


याद है हमें फ़रहाद
 कोहकन से क्या बोलें 


दार तक चले आए 
इस रसन से क्या बोलें


गुफ़्तगू है सूरज से
 हर किरन से क्या बोलें 


सच की पैरवी की है 
अब दहन से क्या बोलें


हमज़बां नहीं 'सर्वत'
 हमवतन से क्या बोलें.


सोमवार, 17 जनवरी 2011

ग़ज़ल

बयान देते हैं सब, कोई जी नहीं देता
कठिन समय पे कोई भीख भी नहीं देता

गरीब हो तो कहावत भी याद रखनी थी
बगैर तेल दिया रोशनी नहीं देता

चढाओ जितना भी जल, वो तो सिर्फ़ सूरज है
सुखा तो देता है लेकिन नमी नहीं देता

मैं दर्द लेके दुखी हूँ मगर पता है मुझे
मेरा ख़याल उन्हें भी खुशी नहीं देता

ये रिश्ते नाते भी लगते हैं उस महाजन से
जो सूद लेता है, खाता बही नहीं देता

लिखत पढ़त ही शरीफों में ले गयी सर्वत
मगर लहू मुझे संजीदगी नहीं देता

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

बस ग़ज़ल के कुछ शेर

पत्थर पत्थर नूर दिखाई देता है 
शीशा चकनाचूर दिखाई देता है .


प्यास लिए चलते चलते मुद्दत गुज़री
दरिया अब भी दूर दिखाई देता है


लोग अंधेपन का रोना क्यों रोते हैं
आँखें हैं, भरपूर दिखाई देता है


सदियाँ गुज़री लेकिन तुमको दहशत में 
हर लंगड़ा तैमूर दिखाई देता है


धोखा पहले पाप बताया जाता था 
लेकिन अब दस्तूर दिखाई देता है 

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

गज़ल



अपने  लिए दिमाग में कोई भरम नहीं
लेकिन हुजूर आप भी साबित कदम नहीं


माहौल के खिलाफ ये कैसा मुजाहिरा 
आवाज़ तो बुलंद है ,नारों में दम नहीं 


एक हादसे का सोग है नाटक की शक्ल में
सब रो रहे हैं,आँख किसी की नम नहीं


अक्सर ही मसलेहत के सबब टूट जाता है
उनका उसूल उसूल है कोई कसम नहीं 


किसकी लहू की प्यास का हम तजकिरा करें 
इंसान और दरिंदों में कोई भी कम नहीं


सर्वत अकेले तुम ही नहीं हो दुखी यहाँ
एक आदमी बताओ जिसे कोई गम नहीं  

शनिवार, 4 सितंबर 2010

गजल

इधर हंसों के जोड़े पालता है
उधर कीड़े मकोड़े पालता है


बुराई भी सभी करते हैं उसकी
पर उसको कौन छोड़े, पालता है


यकीनन है कोई खुफिया इरादा
कोई ऐसे ही थोड़े पालता है


बचा है कोई भी, जो आज ख़ुद को,
बिना तोड़े मरोड़े पालता है ?


जो दिखलाई नहीं पड़ते किसी को
बदन ऐसे भी फोड़े पालता है


वहीं कानून की होती है  इज्जत
जहाँ इंसाफ कोड़े पालता है


भला जीतेगा कैसे जंग में वह
मेरा दुश्मन भगोड़े पालता है

सोमवार, 23 अगस्त 2010

गज़ल

लुटेरा कौन है, पहचान कर खामोश रहती है
रिआया जानती है, जान कर खामोश रहती है.

बगावत और नारे सीखना मुमकिन नहीं इससे
ये बुजदिल कौम मुट्ठी तान कर खामोश रहती है.

कभी अखबार, काफी, चाय,सिग्रेट, पान, बहसों में
कोई आवाज़ उबल कर, ठान कर, खामोश रहती है.

गरीबी, भुखमरी, बेइज़्ज़्ती हमराह  हैं जिसके
वो बस्ती भी मुकद्दर मान कर खामोश रहती है.

दरख्तों पर असर क्या है तेरे होने न होने का
हवा खुद को जरा तूफ़ान कर, खामोश रहती है!

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

गज़ल

साथियो, शुक्रिया...शुक्रिया. मेरी ज्यादतियां भी आप सह रहे हैं. इतने दिनों तक मैं ने कमेन्ट बॉक्स भी बंद रखा और  आप लोगों ने मेरी इस उद्दंडता को भी सहन किया. यकीन कीजिए, मुझे खुद इसका बेहद दुःख रहा. जब भी कोई मुझसे कमेन्ट बॉक्स खोल देने को कहता, बेहद पीड़ा होती लेकिन अपनी इस संवेनशील आत्मा को क्या कहूं जो कुछ चीजों को सहन नहीं कर सकी और ....!
खैर, बात-बेबात वाले डॉ.सुभाष राय और चर्चित ब्लागर अविनाश वाचस्पति का जितना भी शुक्रिया अदा करूं, कम है. उन्होंने मुझे संकट से उबारने में जो परिश्रम किया और लगातार न सिर्फ मेरा हौसला बढ़ाया बल्कि धमकी भी दे डाली कि अगर नई पोस्ट और कमेन्ट बॉक्स ओपनिंग नहीं हुई तो अंजाम......!!!
डर गया हूँ, दब गया हूँ आप सब के स्नेह से, हुक्म की तामील कर रहा हूँ: 

आराम की सभी को है आदत, करेंगे क्या
यह सल्तनत परस्त बगावत करेंगे क्या

मरने के बाद चार अदद काँधे चाहिएं
कुछ रोज़ बाद लोग ये ज़हमत करेंगे क्या

मजहब की ज़िन्दगी के लिए खून की तलब
हम खून से नहा के इबादत करेंगे क्या

खुद जिनकी हर घड़ी यहाँ खतरे में जान है
वो लोग इस वतन की हिफाजत करेंगे क्या

तक़रीर करने वालों से मेरा सवाल है
जब सामने खड़ी हो मुसीबत, करेंगे क्या!

और.... आज़ादी  @ ६३........ मुबारक  

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

गज़ल

बहुत दिनों के बाद आना मुमकिन हो सका है. कुछ काम की व्यस्तता, कुछ हालात, इन सभी ने कुछ ऐसा किया कि लगा जैसे नेट से मोह भंग हो गया हो. चाहते हुए भी कुछ नहीं हो सका. कुछ मित्रों से राय ली-क्या ब्लॉग बंद कर दूं....जवाब मिला, ऐसा होता रहता है. लगे रहो. फिर भी मन को चैन नहीं था. फिर सोचा यह कमेन्ट वगैरह का चक्कर खत्म कर दिया जाए. यह पॉइंट कुछ जचा, कमेन्ट का ऑप्शन खत्म कर दिया. जिन्हें मुझे पढना है, पढ़ लें. प्रशंसा लेकर करूंगा भी क्या. हाँ, जो दोष हों उनके लिए मेल बॉक्स तो है ही. 
फिलहाल, बिना कमेन्ट की इच्छा किए, गज़ल आपकी खिदमत में पेश है.

पता चलता नहीं दस्तूर क्या है 
यहाँ मंज़ूर, नामंजूर क्या है 

कभी खादी, कभी खाकी के चर्चे 
हमारे दौर में तैमूर क्या है  

गुलामी बन गयी है जिनकी आदत
उन्हें चित्तौड़ क्या, मैसूर क्या है

नहीं है जिसकी आँखों में उजाला
वही बतला रहा है नूर क्या है

बताओ रेत है, पत्थर कि शीशा
किया है तुम ने जिस को चूर, क्या है

यही दिल्ली, जिसे दिल कह रहे हो
अगर नजदीक है तो दूर क्या है

वतन सोने की चिड़िया था, ये सच है
मगर अब सोचिए मशहूर क्या है.

शनिवार, 5 जून 2010

सब कुछ है अपने देश में...!!!

किस्सा लखनऊ का है. जवाहर भवन सचिवालय स्थित प्रशिक्षण केंद्र में, ट्रेनिंग असिस्टेंट,राजेश शुक्लने ७ फरवरी, २००९ को आत्महत्या कर ली.पत्नी मिथिलेश और १६ वर्षीय बेटे पीयूष को पति की जगह न नौकरी मिली न फंड. फंड के लिए बेचारी दौडती रही, बाबुओं के आगे हाथ जोड़े, निदेशक से भी मिली लेकिन उसे कोरे आश्वासन ही मिलते रहे.

आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गयी. भुखमरी ने मिथिलेश को एनीमिया का रोगी बना दिया. ४ जून, २०१० को मिथिलेश ने अपने हक की राह देखते देखते आँखें बंद कर लीं. मौत की सूचना मिलने के बाद भी उस कार्यलय का कोई अदना सा कर्मचारी भी सहानुभूति प्रकट करने के लिए भी नहीं आया.

मैं गज़ल पोस्ट करने के इरादे से आया था, इसी दौरान इस खबर पर निगाह पड़ गयी. घंटों दिमाग उलझा रहा और अंत में यही निर्णय हुआ कि गज़ल जाए भाड़ में.

हम क्या हो गए हैं? क्या ये लक्षण इंसान के हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी के सचिवालय कर्मी के साथ जब ऐसा हो सकता है तो दूर-दराज़ के जिलों की स्थिति क्या होगी, अंदाज़ा लगाएं!

एक बात कहूं, पुलिस से नफरत तो पहले ही से दिल में बसी हुई है. अब सरकारी मुलाज़िमों के प्रति भी घृणा पैदा हो गयी. मैं बहुत कुछ लिखने की मनः स्थिति में नहीं हूँ. इस कारण, फैसला आप पर छोड़ता हूँ. मुझे आपकी सपाट बयानी या आम टिप्पणी नहीं चाहिए, हो सके तो समर्थन दें ताकि इस मामले को थोड़ा आगे बढ़ा सकूं. एक बात याद रखिएगा----

कुछ न कहने से भी मिट जाता है एजाज़-ए-सुखन

ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है.

शुक्रवार, 21 मई 2010

ग़ज़ल

हर घड़ी इस तरह मत सोचा करो
जिंदा रहना है तो समझौता करो


कुछ नहीं, इतना ही कहना था, हमें
आदमी की शक्ल में देखा करो


जात, मजहब, इल्म, सूरत, कुछ नहीं
सिर्फ़ पैसे देख कर रिश्ता करो


क्या कहा, लेता नहीं कोई सलाम
मशवरा मनो मेरा, सजदा करो


पास रक्खोगे तो जिल्लत पाओगे
यार इस ईमान का सौदा करो


एक आरक्षण के बल पर इन्कलाब
जागते में ख्वाब मत देखा करो


लोकसत्ता, लोकमत, जनभावना
फूल संग गुलदान भी बेचा करो

गुरुवार, 6 मई 2010

गज़ल

भला ये कोई ढंग है, मिला के हाथ देखिए 
तमीज़ तो यही है ना कि पहले ज़ात देखिए 

हुज़ूर आप फर्ज़ भी निभाइए मगर जरा 
ये थैलियाँ भी देखिए, तअल्लुकात देखिए 

कहीं भी सर झुका दिया, नया खुदा बना लिया 
गुलाम कौम को मिलेगी कब निजात, देखिए 

जब आँधियों का जोर थम गया तो पेड़ बोल उठा 
है कौन डाल-डाल कौन पात-पात देखिए 

जलाए आप ही ने सब चराग, ठीक है मगर 
उजाला-तीरगी हैं कैसे साथ-साथ, देखिए 

हर आदमी में ऐब ढूंढना कमाल तो नहीं 
कभी हुनर भी देखिए, कभी सिफात देखिए 
                                                                               
इसी तरह से मुल्क में रहेगा सर्वत अम्न  अब 
न कोई जुर्म ढूंढिए, न वारदात देखिए. 

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

गज़ल

अमीर कहता है इक जलतरंग है दुनिया
गरीब कहते हैं क्यों हम पे तंग है दुनिया

घना अँधेरा, कोई दर न कोई रोशनदान 
हमारे वास्ते शायद सुरंग है दुनिया 

बस एक हम हैं जो तन्हाई के सहारे हैं 
तुम्हारा क्या है, तुम्हारे तो संग है दुनिया 

कदम कदम पे ही समझौते करने पड़ते हैं 
निजात किस को मिली है, दबंग है दुनिया 

वो कह रहे हैं कि दुनिया का मोह छोड़ो भी 
मैं कह रहा हूँ कि जीवन का अंग है दुनिया 

अजीब लोग हैं ख्वाहिश तो देखिए इनकी 
हैं पाँव कब्र में लेकिन उमंग है दुनिया 

अगर है सब्र तो नेमत लगेगी  दुनिया भी                                                         
नहीं है सब्र अगर फिर तो जंग है दुनिया 

इन्हें मिटाने की कोशिश में लोग हैं लेकिन 
गरीब आज भी जिंदा हैं, दंग है दुनिया   

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

गज़ल- एक बार फिर

लिखते हैं, दरबानी पर भी लिक्खेंगे 
झाँसी वाली रानी पर भी लिक्खेंगे 

आप अपनी आसानी पर भी लिक्खेंगे 
यानी बेईमानी पर भी लिक्खेंगे 

महलों पर लोगों ने ढेरों लिक्खा है 
पूछो, छप्पर-छानी पर भी लिक्खेंगे 

फ़रमाँबरदारों को इस का इल्म नहीं
हाकिम नाफ़रमानी पर भी लिक्खेंगे

अपना तो कागज़ पर लिखना मुश्किल है
और अनपढ़ तो पानी पर भी लिक्खेंगे

बस, कुछ दिन, खेती भी किस्सा हो जाए
खेती और किसानी पर भी लिक्खेंगे

हम ने सर्वत प्यार मुहब्बत खूब लिखा
क्या हम खींचातानी पर भी लिक्खेंगे

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

गज़ल-एक बार फिर

कितने दिन, चार, आठ, दस, फिर बस
रास अगर आ गया कफस, फिर बस


जम के बरसात कैसे होती है
हद से बाहर गयी उमस फिर बस


तेज़ आंधी का घर है रेगिस्तान
अपने खेमे की डोर कस, फिर बस


हादसे, वाक़यात, चर्चाएँ
लोग होते हैं टस से मस, फिर बस


सब के हालात पर सजावट थी
तुम ने रक्खा ही जस का तस, फिर बस


थी गुलामों की आरजू, तामीर
लेकिन आक़ा का हुक्म बस, फिर बस


सौ अरब काम हों तो दस निकलें                          
उम्र कितनी है, सौ बरस, फिर बस

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

अपने वतन में सब कुछ है...

मुझे नहीं, हम सभी को पता है कि अपने वतन में सब कुछ है. लेकिन सब कुछ उपलब्ध कराने का ज़िम्मा जिन लोगों को सौंपा गया है, उनकी नीयत, उनकी बरकत के क्या कहने! ताज़ा वाकया ऐसा है जिसे सुन कर आप का सर शर्म से झुक जाएगा, शर्त है कि आप में सम्वेदना हो.
वेंकुवर में शीतकालीन ओलम्पिक खेल आरम्भ हो रहे हैं. आपको इल्म है कि इस में देश का प्रतिनिधित्व करने गए तीन भारतीय खिलाडियों के पास, उद्घाटन समारोह में शिरकत के लिए जर्सी नहीं थी. एक दक्षिण एशियाई ब्रोडकास्टर सुषमा दत्त को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने सरे से अनुदान की व्यवस्था की.
भारतीय टीम के सदस्य, शिवा केशवन का दर्द महसूस कीजिए-"ओलम्पिक हर खिलाड़ी का सपना होता है. उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए अच्छी ड्रेस की जरूरत पड़ती है जो हमारे पास नहीं थी. विंटर से जुड़े खेलों के लिए हमारे पास उपकरण भी नहीं हैं. लेकिन यह संघर्ष का दौर है इससे हर हाल में पार पाना होगा."
शर्म से डूब मरने का मुकाम है. सिर्फ भारत की आम जनता में कुछ प्रतिशत लोगों के लिए. खादी और सफारी तो इसे 'रूटीन' बताकर पल्ला झाड लेंगे. वैसे भी यह विंटर गेम्स हैं कोई क्रिकेट थोड़े है. क्रिकेट पैसे पैदा करता है और विंटर ओलम्पिक!  ये तो सिर्फ देश के लिए ही खेला जाता है ना! देश सेवा करने वालों को क्या मिलता है? भगत सिंह को फांसी, गाँधी को गोली, शास्त्री को अकाल मृत्यु......वगैरह वगैरह.
सरे में एक स्पोर्ट्स कम्पनी के मालिक टी जे जोहाल ने जब यह सुना कि भारतीय खिलाडियों के पास शीतकालीन ओलम्पिक खेलों के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए कपड़े नहीं हैं तो वे हतप्रभ रह गए.उन्होंने कहा, "भारत को कपड़ों का देश कहा जाता है और उनके खिलाडियों के पास जरूरी जर्सी न हो यह सुनना थोड़ा आश्चर्यजनक लगता है."
जोहाल ने आगे कहा, "जब मुझे सच्चाई पता लगी तो वह सही मायने में निराश करने वाली थी. उन खिलाडियों के पास सही में उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए जरूरी जर्सी नहीं थी. इसके बाद मैंने तीनों भारतीय खिलाडियों को जर्सी उपलब्ध करने का निर्णय लिया क्योंकि एक खिलाड़ी को सब समय फिट और अपनी जर्सी में होना चाहिए ताकि वो खुद को चैम्पियन महसूस कर सके."
अभी कितने गुज़रे २६ जनवरी को? बड़ी देशभक्ति, आन, बान, शान की बातें की गईं. अब इस मामले पर क्या होगा? शायद कोई जांच कमेटी बिठा दी जाएगी और कुछ लोगों के बयान छापेंगे, फिर फ़ाइल ठंडे बस्ते में. देश की जो बदनामी होनी थी, वो तो हो चुकी.
१९६२ में, चीन युद्ध के दौरान, हमारे सैनिकों के पास न तो गर्म कपड़े थे न ही ऐसे जूते जिन से बर्फ में पैरों की हिफाजत होती. आज, ४८ वर्ष बाद इस घटना ने क्या साबित किया?
मुझे इस पोस्ट में और कुछ और नहीं लिखना. मन इतना खट्टा हो गया इस घटना को पढकर कि इसे भी पोस्ट करने का दिल नहीं था. अब जो भी कहना है, आपको कहना है.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

अपने वतन में सब कुछ है प्यारे...!

अख़बार में छपी एक खबर देखी और सवेरे सवेरे मूड ऑफ़ हो गया.
चंडीगढ़ पुलिस ने सेक्टर ४२ के एक गेस्ट हाउस से शंकर मेहता उर्फ़ महतो नामक एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया. इस आदमी पर इलज़ाम है कि वह भीख मांग कर मंहगे होटलों में ठहरने का शौकीन है. पुलिस ने उसके पास से एक मंहगा मोबाइल फोन भी बरामद किया है. मजे की बात यह है कि महतो इस गेस्ट हाउस में पिछले २ माह से रह रहा था और किराये के रूप में ६ हजार रूपयों का भुगतान भी कर चुका था. गिरफ्तारी के वक्त उसके पास से ३ हजार रूपये और मोबाइल फोन बरामद किए गये.
मुलाहिजा फरमाइए, क्या कारनामा अंजाम दिया है पुलिस ने! लगा जैसे माफिया या आतंकवादी को पकड़ लिया हो. जांच करने वाले अधिकारी ने यह भी बताया कि वह गर्मियों में शिमला जाने की योजना बना रहा था. फिलवक्त उस पर भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है.
महतो लकी है कि उसे पुलिस ने भीख मांगने के आरोप में पकड़ा. चाहती तो उसे आतंकवादी बता देती. लश्कर, आई.एस.आई.,उल्फा या किसी अन्य संगठन का सक्रिय सदस्य बता या बना सकती थी. या इस खबर का प्रकाशन यूं भी हो सकता था......कि मुखबिर की सूचना पर, आला अधिकारीयों के निर्देशन में फलां इंस्पेक्टर मय हमराह कांस्टेबल फलां...फलां ने गेस्ट हाउस पर दबिश दे कर चोरी/डकैती/लूट(या जो भी मुनासिब होता) की योजना बनाते महतो को सरकारी गेस्ट हाउस से गिरफ्तार किया. आला अधिकारी उसके अन्य साथियों और पिछली वारदातों हेतु गहन छानबीन कर रहे हैं.
महतो खुशकिस्मत है कि वह अख़बार की एक छोटी सी न्यूज़ बना, वो बड़ी सुर्खी बन सकता था. मय फोटो, खून में लथपथ लाश की सूरत में, कैमरे के सामने लाश के पास असलहे लिए हुए पुलिस वालों के मुस्कुराते चेहरों के साथ. लेकिन शायद चंडीगढ़ पुलिस, देश के दूसरे सूबों की पुलिस के मुकाबले ईमान्दार है या फिर सरकारी गेस्ट हाउस का मामला होने की वजह से वैसा नहीं हो सका जैसा अब तक पुलिस के कारनामों में होता रहा है.
मुझे इस मामले में सिर्फ एक चीज़ समझ में आती है. कुछ माह पहले, हैरान परेशान के ब्लॉग में एक लेख छपा था. उस में पुलिस और भिखारी की तुलना की गयी थी. मुझे अपना एक शेर भी याद आता है:-
हाथ फैलाए खड़े थे दोनों ही फुटपाथ पर 
चीथड़ों में एक था और दूसरा वर्दी में था.
शालीनता का तकाज़ा है, वरना पूरा लतीफा सुना देता. फिर भी, वो आख़िरी जुमला लिख रहा हूँ. जो लोग वाकिफ हैं वो तो समझ जाएँगे और जो नावाकिफ हैं वो किसी समझदार को ढूंढ कर मुस्कुराने की आज़ादी हासिल करें..
"मांगने को भीख और शौक़ रखते हो नवाबों वाले".
मांगने का काम पुलिस का है. अब यह काम अगर कोई दूसरा कर रहा है तो पुलिस यानी सरकारी काम में न सिर्फ हस्तक्षेप बल्कि अनाधिकार चेष्टा का भी मामला बनता है. चूंकि पुलिस के 'मांगने' को आज़ादी के ६३ वर्षों बाद भी सरकारी मान्यता नहीं मिल सकी. यही कारण है की महतो के भाग्य का सितारा अब तक बुलंद है. सरकार के इस महत्वपूर्ण विषय पर आँखें मूंदे रहने से महतो बच गए वरना ठंडे मौसम ठंडे पड़े होते. 
फ़िलहाल, पुलिस महतो के फोन की काल डिटेल्स निकलवा रही है और उसका शिमला जाना क्यों हो था है, इस पर भी मनन कर रही है. 
मुझे एक और जरूरी बात कहनी है आपसे....
पिछले कुछ अरसे से मन कुछ अजीब सा हो रहा है. गजलों-कविताओं से दिल उचाट हो गया है. मैं शायद अब गजलें पोस्ट न करूं. मुझे इस बात की खुशी है कि इधर पिछले कुछ माह में नए लोगों की की एक बड़ी और बेहतरीन खेप नेट पर अपनी आमद दर्ज करा चुकी है. ऐसे में एक आदमी की रचनाओं के न होने से कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा. मुझे, मेरे इस फैसले के लिए क्षमा कीजिएगा लेकिन खुद से कब तक लड़ा जाए.
और अंत में.... यह कोई पब्लिसिटी स्टंट नहीं है. मैं सच्चे मन से अपनी बात कह रहा हूँ. ब्लॉग पर अन्य विषयों को लेकर आपके साथ हूँ और रहूँगा भी. सिर्फ पोएट्री से अलग हो रहा हूँ.
अगर आप में से कुछ भाई यह सोच रहे हों कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का यह थोथा प्रयास है तो यकीन रखें ऐसी कोई भावना मेरे अंदर नहीं है. लिहाज़ा इस विषय पर अब कोई चर्चा नहीं.
इस लेख पर आपकी राय का इंतज़ार है.

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

नज़्म

उस गणतंत्र के नाम, जो गण का तो रहा नहीं, तन्त्र का हो कर रह  गया. गण भौंचक्के से तन्त्र के आगे सर झुकाए, गणतन्त्र दिवस को हसरत भरी निगाहों से देखते हैं. सोचते हैं, जाने कब वो दिन आएगा जब वास्तविक 
 'गणतन्त्र' होगा,
हम सब के लिए..... छोड़िए, नज़्म पढ़िए 

दाना नहीं है पेट में, खुशियाँ मनाइए
छब्बीस जनवरी है ये छब्बीस जनवरी
इक बार और जोर से नारा लगाइए

मंहगाई बैठी सब को परीशां किए हुए
सरकार कह रहे हैं कि कुछ और सब्र हो
बैठे रहें तस्व्वुरे-जानां किए हुए

कानून, संविधान- हरे राम राम राम
बाहर की बात छोड़िए खतरे तो घर में हैं
है कोई सावधान- हरे राम राम राम

इंसानियत जो मोम थी, वो काठ की हुई
हर शख्स थकने लगता है इक उम्र आने पर
जम्हूरियत भी आज चलो साठ की हुई.

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

वसंत पंचमी

विद्या की देवी सरस्वती की आराधना का पुनीत पर्व एवं ऋतुराज वसंत के आगमन पर आप समस्त स्नेहीजनों को शुभकामनाएँ .
ब्लाग-जगत में हम जिस प्रेम भावना के साथ हैं, प्रार्थना है कि वसुंधरा का प्रत्येक प्राणी  जाति-धर्म-भाषा से ऊपर उठ कर उसी निर्मल भाव से संसार को प्रेम-ज्योति से अवलोकित करे.


सोई तकदीर जगाने को वसंत आया है
प्यार के फूल खिलाने को वसंत आया है
अपनी आवाज़ के सुर आज मिलाओ इससे
इक नया राग सुनाने को वसंत आया है. 
                        


गुरुवार, 7 जनवरी 2010

गजल - एक बार फिर

क्या हम इस बात पर गुमान करें 
मुल्क में खुदकुशी किसान करें 

अपनी खेती उन्हें पसंद आई                  
आइए,  मिल  के कन्यादान करें 

सारी दुनिया को हम से हमदर्दी 
जैसे बगुले नदी पे ध्यान करें 

देश, मजहब, समाज, खुद्दारी 
काहे सांसत में अपनी जान करें 

कर्ज़ से गर निजात चाहिए, तो 
आप सोने की गाय दान करें 

इस तरफ आदमी, उधर कुत्ता 
बोलिए, किस को सावधान करें! 

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

गजल - 73

पैदा जब अपनी फ़ौज में गद्दार हो गए
कैसे कहूं कि फ़तह के आसार हो गए

आंधी से टूट जाने का खतरा नजर में था
सारे दरख्त झुकने को तैयार हो गए

तालीम, जहन, ज़ौक, शराफत, अदब, हुनर
दौलत के सामने सभी बेकार हो गए

हैरान कर गया हमें दरिया का यह सलूक
जिनको भंवर में फंसना था, वो पार हो गए

आसूदगी, सुकून मयस्सर थे सब मगर
ज़ंजीर उसके पांव की दीनार हो गए

सर्वत किसी को भी नहीं ख्वाहिश सुकून की
अब लोग वहशतों के तलबगार हो गए




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आप सभी का प्यार, स्नेह लेकर नए वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ. ऊपर वाले से दुआ है कि वर्ष २०१० सब के लिए मंगलकारी और खुशियों से लदा-फंदा हो.

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

ग़ज़ल- ek baar phir

रोशनी सब को दिखलाइये
ख़ुद पे भी गौर फरमाइए


आइना हूँ मैं दीवार पर
आइये, देखिये, जाइए


कौन आजाद है इस जगह
अपने शीशे बदलवाइये


लोग बेहद समझदार हैं
मौसमी गीत मत गाइए


रेत आंखों में भर जायेगी
इस हवा पर न इतराइये


लीजिये मुल्क जलने लगा
अब तो सिगरेट सुलगाइए